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________________ 122] [स्थानाङ्गसूत्र जामे, पच्छिमे जामे / १६६-तिहि जामेहि प्राया केवलं सुयणाणं उप्पाडेज्जा, तं जहा–पढमे जामे, मज्झिमे जामे, पच्छिमे जामे। १७०-तिहि जामेहि प्राया केवलं प्रोहिणाणं उप्पाडेज्जा, तं जहापढमे जामे, मज्झिमे जामे, पच्छिमे जामे। १७१-तिहिं जामेहि माया केवलं मणपज्जवणाणं उप्पाडेज्जा, तं जहा-पढमे जामे, मज्झिमे जामे, पच्छिमे जामे। १७२—तिहिं जामेहिं आया] केवलणाणं उप्पाडेज्जा, तं जहा–पढमे जामे, मझिमे जामे, पच्छिमे जामे / तीन याम (प्रहर) कहे गये हैं--प्रथम याम, मध्यम याम और पश्चिम याम (161) / तीनों ही यामों में आत्मा केवलि-प्रज्ञप्त धर्म-श्रवण का लाभ पाता है-प्रथम याम में, मध्यम याम में और पश्चिम याम में (162) / तीनों ही यामों में आत्मा विशुद्ध बोधि को प्राप्त करता है-प्रथम याम में, मध्यम याम में और पश्चिम याम में (163) / तीनों ही यामों में आत्मा मुडित होकर अगार से अनगारिता में प्रव्रजित होता है-प्रथम याम में, मध्यम याम में और पश्चिम याम में (164) / तीनों ही यामों में आत्मा विशुद्ध ब्रह्मचर्यवास में निवास करता है—प्रथम याम में, मध्यम याम में और पश्चिम याम में (165) / तीनों ही यामों में आत्मा विशुद्ध संयम से संयत होता है-प्रथम याम में, मध्यम याम में और पश्चिम याम में (166) / तीनों ही यामों में, आत्मा विशुद्ध संवर से संवृत होता है-प्रथम याम में, मध्यम याम में और पश्चिम याम में (167) / तीनों ही यामों में आत्मा विशुद्ध प्राभिनिबोधिक ज्ञान को प्राप्त करता है—प्रथम याम में, मध्यम याम में और पश्चिम याम में (168) / तीनों ही यामों में आत्मा विशुद्ध श्र तज्ञान को प्राप्त करता है---प्रथम याम में, मध्यमयाम में और पश्चिम याम में (166) / तीनों ही यामों में आत्मा विशुद्ध अवधिज्ञान को प्राप्त करता , है—प्रथम याम में, मध्यम याम में और पश्चिम याम में (170) / तीनों हो यामों में आत्मा विशुद्ध मन:पर्यवज्ञान को प्राप्त करता है-प्रथम याम में, मध्यम याम में और पश्चिम याम में (171) / तीनों ही यामों में प्रात्मा विशुद्ध केवलज्ञान को प्राप्त करता है]-प्रथम ग्राम में, मध्यम याम में और पश्चिम याम में (172) / विवेचन--साधारणतः याम का प्रसिद्ध अर्थ प्रहर, दिन या रात का चौथा भाग है। किन्तु यहां त्रिस्थान का प्रकरण होने से रात्रि को तथा दिन को तीन यामों में विभक्त करके वर्णन किया गया है। अर्था और रात्रि के तीसरे भाग को याम कहा गया है। इस सत्र का आशय यह है कि दिन रात का ऐसा कोई समय नहीं है, जिसमें कि आत्मा धर्म-श्रवण और विशुद्ध बोधि आदि को न प्राप्त कर सके। अर्थात् सभी समयों में प्राप्त कर सकता है। वयः-सूत्र १७३–तओ क्या पण्णता, तं जहा-पढमे वए, मज्झिमे वए, पच्छिमे वए। १७४-तिहि वएहिं पाया केवलिपण्णत्तं धम्म लभेज्ज सवणयाए, तं जहा-पढमे वए, मज्झिमे वए, पच्छिमे वए। १७५.-[एसो चेव गमो यन्यो जाव केवलनाणं ति तिहिं वएहि प्राया-केवलं बोधि बुज्झेज्जा, केवलं मडे भवित्ता मगाराओ प्रणगारियं पम्वइज्जा, केवलं बंभचेरवासमावसेज्जा, केवलेणं संजमेणं संजमेज्जा, केवलेणं संवरेणं संवरेज्जा, केवलमाभिषिबोहियणाणं उप्पाडेजा, केवल सुयणाणं उम्पाडेज्जा, केवलं मोहिणाणं उप्पाडेज्जा, केवलं मणपज्जवणाणं उप्पाडेज्जा, केवलं केवलणाणं उप्पाडेज्जा, तं जहा-पढमे वए, मज्झिमे वए, पच्छिमे वए] / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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