________________ तृतीय स्थान-प्रथम उद्देश ] [ 116 देव-सूत्र १३८-प्राणयपाणयारणच्चुतेसु णं कप्पेसु देवाणं भवधारणिज्जसरीरगा उक्कोसेणं तिण्णि रयणीयो उड्ढ उच्चत्तेणं पण्णत्ता। प्रानत, प्राणत, पारण और अच्युत कल्पों में देवों के भव-धारणीय शरीर उत्कृष्ट तीन रनि-प्रमाण ऊंचे कहे गये हैं। प्रज्ञप्ति -सूत्र १३६-तो पण्णत्तोश्रो कालेणं अहिज्जति, त जहा-चंदपण्णत्ती, सूरपण्णत्ती, दीवसागरपण्णत्ती। तीन प्रज्ञप्तियां यथाकाल (प्रथम और अंतिम पौरुषी में) पढ़ी जाती हैं—चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति और द्वीपसागर प्रज्ञप्ति। (त्रिस्थानक होने से व्याख्याप्रज्ञप्ति तथा जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति की विवक्षा नहीं की गई है।). / तृतीय स्थान का प्रथम उद्देश समाप्त / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org