________________ 114 ] [स्थानाङ्गसूत्र योनि (जीव की उत्पत्ति का स्थान) तीन प्रकार की कही गई है-शीतयोनि, उष्णयोनि अरौ शीतोष्ण (मिश्र) योनि। तेजस्कायिक जीवों को छोड़कर एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, सम्मूच्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यंच और सम्मूछिम मनुष्यों के तीनों ही प्रकार की योनियां कही गई हैं (100) / पुनः योनि तीन प्रकार की कही गई है--सचित्त, अचित्त और मिश्र (सचित्ताचित्त)। एकेन्द्रिय, विकले. न्द्रिय, सम्मूच्छिमपंचेन्द्रिय तिर्यंच तथा सम्मूच्छिम मनुष्यों के तीनों ही प्रकार की योनियां कही गई हैं (101) / पुनः योनि तीन प्रकार की होती है-संवृत, विवृत और संवृतविवृत (102) / विवेचन-संस्कृत टीकाकार ने संवत का अर्थ 'घटिकालयवत् संकटा' किया है और उसका हिन्दी अर्थ संकड़ी किया गया है। किन्तु आचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थ सिद्धि में संवृत का अर्थ 'सम्यग्वतः संवृतः, दुरूपलक्ष्यः प्रदेश:' किया है जिसका अर्थ अच्छी तरह से प्रावृत या ढका हुआ स्थान होता है। इसी प्रकार विवत का अर्थ खला हा स्थान और संवतविवत का अर्थ कछ खला, कुछ ढंका अर्थात् अधखुला स्थान किया है / लाडनू वाली प्रति में संवृत का अर्थ संकड़ी, विवृत का अर्थ चौड़ी और संवृतविवृत का अर्थ कुछ संकड़ी कुछ चौड़ी योनि किया है। १०३–तिविहा जोणी पण्णत्ता, त जहा-कुम्मुण्णया, संखावत्ता, वंसीवत्तिया / 1. कुम्मुण्णया गं जोणी उत्तमपुरिसमाऊणं / कुम्मुण्णयाए णं जोणिए तिविहा उत्तमपुरिसा गन्भं वक्कमंति, त जहा--भरहंता, चक्कवट्टी, बलदेववासुदेवा। 2. संखावत्ता णं जोणी इत्थीरयणस्स / संखावत्ताए णं जोणोए बहवे जीवा य पोग्गला य वक्कमति, विउक्कमंति, चयंति, उववज्जति, णो चेव णं णिप्फज्जति / 3. वंसीवत्तिता णं जोणी पिहज्जणस्स। बंसीवत्तिताए णं जोणिए बहवे पिहज्जणा गभं वक्कमंति। पुन: योनि तीन प्रकार की कही गई है-कूर्मोन्नत (कछुए के समान उन्नत) योनि, शंखावर्त (शंख के समान आवर्तवाली) योनि, और वंशीपत्रिका (बांस के पत्ते के समान प्राकार वाली) योनि / 1. कूर्मोन्नत योनि उत्तम पुरुषों की माताओं के होती है। कूर्मोन्नत योनि में तीन प्रकार के उत्तम पुरुष गर्भ में आते हैं-अरहन्त (तीर्थंकर), चक्रवर्ती और बलदेव-वासुदेव / 2. शंखावर्तयोनि (चक्रवर्ती के) स्त्रीरत्न की होती है। शंखावर्तयोनि में बहुत से जीव और पुद्गल उत्पन्न और विनष्ट होते हैं, किन्तु निष्पन्न नहीं होते। 3. वंशीपत्रिकायोनि सामान्य जनों की माताओं के होती है। वंशीपत्रिका योनि में अनेक सामान्य जन गर्भ में आते हैं। तुणवनस्पति-सूत्र १०४-तिविहा तणवणस्सइकाइया पणत्ता, तजहासंखेज्जजीविका, असंखेज्जजीविका, अणंतजीविका। तृणवनस्पतिकायिक जीव तीन प्रकार के कहे गये हैं-१. संख्यात जीव वाले (नाल से बंधे हुए पुष्प) 2. असंख्यात जीव वाले (वृक्ष के मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वक्-छाल, शाखा और प्रवाल,) 3. अनन्त जीव वाले (पनक, फफूदी, लीलन-फूलन आदि)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org