________________ तृतीय स्थान--प्रथम उद्देश ] [ 105 विवेचन--उदर, वक्षःस्थल अथवा भुजाओं आदि के बलपर सरकने या चलने वाले जीवों को परिसर्प कहा जाता है / इन को जातियां मुख्य रूप से दो प्रकार की होती हैं-उर परिसर्प और भुजपरिसर्प / पेट और छाती के बलपर रेंगने या सरकने वाले सांप ग्रादि को उर:परिसर्प कहते हैं और भुजानों के बल पर चलने वाले नेउले, गोह आदि को भुजपरिसर्प कहते हैं / इन दोनों जातियों के अण्डज और पोतज जीव तो तीनों ही वेदवाले होते हैं। किन्तु सम्मूर्छिम जाति वाले केवल नपुंसक वेदी ही होते हैं। स्त्री-सूत्र ४८–तिविहानो इत्थीनो पण्णत्ताओ, त जहा--तिरिक्खजोणित्थीनो, मणुस्सित्थीयो देविस्थोनो। 46 --तिरिक्ख जोणीग्रो इत्थोनो तिविहानो पण्णतारो, त जहा-जलचरोश्रो थलचरीग्रो, खहचरीओ। 50 -मणुस्सित्थीयो तिविहाओ पण्णत्तानो, तजहा-कम्मभूमियानो, अकम्मभूमियाओ अंतरदीविगारो। स्त्रियां तीन प्रकार की कही गई हैं-तिर्यग्योनिकस्त्री, मनुष्यस्त्री और देवस्त्री (48) / तिर्यग्योनिक स्त्रियां तीन प्रकार की कही गई हैं-जलचरी स्थलचरी और खेचरी (नभश्चरी) (46) / मनुष्य स्त्रियां तीन प्रकार की कही गई हैं-कर्मभूमिजा, अकर्मभूमिजा और अन्तर्वीपजा (50) / विवेचन-नरक गति में नारक केवल एक नपुंसक वेद वाले होते हैं अत: शेष तीन गतिवाले जीवों में स्त्रियों का होना कहा गया है। तिर्यग्योनि के जीव तीन प्रकार के होते हैं, जलचरमत्स्य, मेंढक आदि / स्थलचर--बैल भैसा आदि। खेचर या नभश्चर-कबूतर, बगुला, आदि / इन तीनों जातियों की अपेक्षा उन की स्त्रियां भी तीन प्रकार की कही गई हैं। मनुष्य तीन प्रकार के होते हैंकर्मभूमिज, अकर्मभूमिज और अन्तर्वीपज / जहां पर मषि, असि, कृषि प्रादि कर्मों के द्वारा जीवननिर्वाह किया जाता है, उसे कर्मभूमि कहते है / भरत, ऐरवत क्षेत्र में अवसर्पिणी पारे के अन्तिम तीन कालों में, तथा उत्सर्पिणी के प्रारम्भिक तीन कालों में कृषि आदि से जीविका चलाई जाती है, अतः उस समय वहां उत्पन्न होने वाले मनुष्य-तिर्यचों को कर्मभूमिज कहा जाता है / विदेह क्षेत्र के देवकुरु और उत्तरकुरु को छोड़कर पूर्व और अपर विदेह में उत्पन्न होने वाले मनुष्य-तिर्यच कर्मभूमिज ही कहलाते हैं / शेष हैमवत आदि क्षेत्रों में तथा सुषमासुषमा आदि तीन कालों में उत्पन्न हुए मनष्य-तिर्यंचों को अकर्मभमिज या भोगभूमिज कहा जाता है, क्योंकि वहां के मनष्य और तिर्यंच प्रकृति-जन्य कल्पवृक्षों द्वारा प्रदत्त भोगों को भोगते हैं। उक्त दो जाति के अतिरिक्त लवण आदि समुद्रों के भीतर स्थित द्वीपों में उत्पन्न होने वाले मनुष्यों को अन्तर्वीपज कहते हैं। इस प्रकार मनुष्य तीन प्रकार के होते हैं, अतः उनकी स्त्रियां भी तीन प्रकार की कही गई हैं। पुरुष-सूत्र ५१-तिविहा पुरिसा पण्णत्ता, त जहा–तिरिक्खजोणियपुरिसा, मणुस्सपुरिसा, देवपुरिसा। ५२-तिरिक्खजोणियपुरिसा तिविहा पण्णत्ता, त जहा—जलचरा, थलचरा, सहचरा / ५३–मणस्सपुरिसा तिविहा पण्णत्ता, त जहा-कम्मभूमिया, अकम्मभूमिया, अंतरदीवगा। पुरुष तीन प्रकार के कहे गये हैं-तिर्यग्योनिक पुरुष, मनुष्य-पुरुष और देव-पुरुष (51) / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org