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________________ तृतीय स्थान -प्रथम उद्देश [ 101 तीन प्रकार से जीव अशुभ दीर्घायुष्य कर्म का बन्ध करते हैं-प्राणों का घात करने से, मृषावाद बोलने से और तथारूप श्रमण माहन की अवहेलना, निन्दा, अवज्ञा, गीं और अपमान कर कोई अमनोज्ञ तथा अप्रीतिकर प्रशन' पान, खाद्य, स्वाद्य का प्रतिलाभ करने से / इन तीन प्रकारों से जीव अशुभ दीर्घ आयुष्य कर्म का बन्ध करते हैं (16) / 20 --तिहि ठाणेहि जोवा सुभदोहाउयत्ताए कम्मं पगरेंति, तं जहा-णो पाणे प्रतिवातित्ता भवइ, णो मुसं वदित्ता भवइ, तहारूवं समणं वा माहणं वा वंदित्ता णमंसित्ता सक्कारिता सम्माणित्ता कल्लाणं मंगलं-देवतं चेतितं पज्जुवासेत्ता मणुष्णणं पीतिकारएणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाभत्ता भवइ-इच्चेतेहि तिहि ठाणेहि जीवा सुहदोहाउयत्ताए कम्मं पगरेंति / तीन प्रकार से जीव शुभ दीर्घायुष्य कर्म का बन्ध करते हैं—प्राणों का पात न करने से, मृषावाद न बोलने से और तथारूप श्रमण माहन को वन्दन-नमस्कार कर, उनका सत्कार सम्मान कर, कल्याणकर, मंगल देवरूप तथा चैत्यरूप मानकर उनकी पर्युपासना कर उन्हें मनोज्ञ एवं प्रीतिकर अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य आहार का प्रतिलाभ करने से / तीन प्रकारों से जीव शुभ दीर्घायुष्य कर्म का बन्ध करते हैं (20) / गुप्ति-अगुप्ति-सूत्र २१–तम्रो गुत्तीनो पण्णत्तानो, त जहा-मणगुत्ती, वइगुत्ती, कायगुत्तो। २२--संजयमणुस्साणं तमो गुत्तीग्रो पण्णतामो, त जहा-मणगुत्ती, वइगुत्ती, कायगुत्ती। २३---तो अगुत्तीयो पण्णत्तानो, त जहा~मणप्रगुत्ती, वइगुत्ती, कायप्रगुत्ती। एवं—णेरइयाणं जाव थणियकुमाराणं पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं असंजतमणुस्साणं वाणमंतराणं जोइसियाणं बेमाणियाणं। गुप्ति तीन प्रकार को कही गई हैं-मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति (21) / संयत मनुष्यों के तीनों गुप्तियां कही गई हैं--मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति (22) / अगुप्ति तीन प्रकार की कही गई है --मन-अगुप्ति, वचन-अगुप्ति और काय-अगुप्ति / इसी प्रकार नारकों से लेकर यावत् स्तनित कुमारों के, पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिकों के, असंयत मनुष्यों के, वान-व्यन्तर देवों के, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के तीनों ही अगुप्तियां कही गई हैं (मन, वचन, काय के नियंत्रण को गुप्ति और नियंत्रण न रखने को अगुप्ति कहते हैं ) / (23) दण्ड-सूत्र २४--तो दंडा पण्णता, तं जहा-मणदंडे, वइदंडे, कायदंडे / २५--णेरइयाणं तो दंडा पण्णता, त जहा-मणदंडे, व इदंडे, कायदंडे / विलिदियवज्ज जाव वेमाणियाणं / दण्ड तीन प्रकार के कहे गये हैं-मनोदण्ड, वचनदण्ड और कायदण्ड (24) / नारकों के तीन दण्ड कहे गये हैं - मनोदण्ड, वचनदण्ड और कायदण्ड / इसी प्रकार विकलेन्द्रिय जीवों को छोड़कर वैमानिक-पर्यन्त सभी दण्डकों में तीनों ही दण्ड कहे गये हैं। (योगों की दुष्ट प्रवृत्ति को दण्ड कहते हैं) (25) / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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