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________________ 100] | स्थानाङ्गसूत्र वीर्य को योग कहते हैं / तत्त्वार्थसूत्रकार ने मन, वचन और काय की क्रिया को योग कहा है। योग के निमित्त से ही कर्मों का प्रास्त्रव और बन्ध होता है। मन से युक्त जीव के योग को मनोयोग कहते हैं ! अथवा मन के कृत, कारित और अनुमतिरूप व्यापार को मनोयोग कहते हैं। इसी प्रकार वचनयोग और काययोग का भी अर्थ जानना चाहिए। प्रयोजन-विशेष से किये जाने वाले मन-वचनकाय के व्यापार-विशेष को प्रयोग कहते हैं। योग के समान प्रयोग के भी तीन भेद होते हैं और उनसे कर्मों का विशेष आस्रव और बन्ध होता है। योगों के संरम्भ-समारम्भादि रूप परिणमन को करण कहते हैं। पृथ्वीकायिकादि जीवों के घात का मन में संकल्प करना संरम्भ कहलाता है। उक्त जीवों को सन्ताप पहुंचाना समारम्भ कहलाता है और उनका घात करना प्रारम्भ कहलाता है। इस प्रकार योग, प्रयोग और करण इन तीनों के द्वारा जीव, कर्मों का आस्रव और बन्ध करते रहते हैं। साधारणतः योग, प्रयोग और करण को एकार्थक भी कहा गया है। आयुष्य-सूत्र 17 --तिहि ठाणेहि जीवा अप्पाउयत्ताए कम्मं पगरेंति, तं जहा-पाणे अतिवातित्ता भवति, मुसंवत्ता भवति, तहारूवं समणं वा माहणं वा अफासुएणं अणेसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाभेत्ता भवति इच्चेतेहिं तिहि ठाणेहिं जीवा अप्पाउयत्ताए कम्मं पगरेति / तीन प्रकार से जीव अल्पायुष्य कर्म का बन्ध करते हैं-प्राणों का प्रतिपात (घात) करने से, मृषाबाद बोलने से और तथारूप श्रमण माहन को अप्रासुक, अनेषणीय अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य आहार का प्रतिलाभ (दान) करने से। इन तीन प्रकारों से जीव अल्प आयुष्य कर्म का बन्ध करते हैं (17) / विवेचनप्रस्तुत सूत्र में आये विशिष्ट पदों का अर्थ इस प्रकार है-संयम-साधना के अनुरूप वेष के धारक को तथारूप कहते हैं / अहिंसा के उपदेश देनेवाले को माहन कहते हैं / सजीव खानपान की वस्तुओं को अप्रासुक कहते हैं / साधु के लिए अग्राह्य भोज्य पदार्थों को अनेषणीय कहते हैं / दाल, भात, रोटी आदि अशन कहलाते हैं। पीने के योग्य पदार्थ पान कहे जाते हैं / फल, मेवा आदि को खाद्य और लौंग, इलायची आदि स्वाद लेने योग्य पदार्थों को स्वाद्य कहते हैं / १८-तिहिं ठाणेहि जीवा दीहाउयत्ताए कम्मं पगरेंति, तं जहा–णो पाणे अतिवातित्ता भवइ, णो मुसं वइत्ता भवइ, तहारूवं समणं वा माहणं वा 'फासुएणं एसणिज्जेणं' असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाभेत्ता भवइ–इच्छेतेहि तिहि ठाणेहिं जीवा दोहाउयत्ताए कम्मं पगरेंति / तीन प्रकार से जीव दीर्घायुष्य कर्म का बन्ध करते हैं—प्राणों का अतिपात न करने से, मृषावाद न बोलने से, और तथारूप श्रमण माहन को प्रासुक एषणीय अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य आहार का प्रतिलाभ करने से / इन तीन प्रकारों से जीव दीर्घायुष्य कर्म का बन्ध करते हैं (18) / १६-तिहि ठाणेहि जीवा असुभदोहाउयत्ताए कम्म पगरेंति, तं जहा-पाणे प्रतिवातित्ता भवइ, मुसं वइत्ता भवइ, तहारूवं समणं वा माहणं वा होलित्ता णिदित्ता खिसिता गरहित्ता अवमाणित्ता अण्णयरेणं अमणुण्णेणं अपीतिकारएणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलांभेत्ता भवइइच्चेतेहि तिहि ठाणेहिं जीवा असुभदीहाउयत्ताए कम्मं पगरेति / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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