________________ द्वितीय स्थान -चतुर्थ उद्देश] [ 63 समुद्र-पद ४४७.-अंतो णं मणुस्सखेत्तस्स दो समुद्दा पण्णत्ता, त जहा-लवणे चव, कालोदे चव / मनुष्य क्षेत्र के भीतर दो समुद्र कहे गये हैं-लवणोद और कालोद / चक्रवत्ती-पद ४४८---दो चक्कवट्टी अपरिचत्तकामभोगा कालमासे कालं किच्चा अहेसत्तमाए पुढवीए अपइट्टाणे णरए गैरइयत्ताए उववण्णा, त जहा-सुभूमे चव, बंभदत्ते चव।। ___ दो चक्रवर्ती काम-भागों को छोड़े विना मरण काल में मरकर नीचे की ओर सातवीं पृथ्वी के अप्रतिष्ठान नरक में नारकी रूप से उत्पन्न हुए-सुभूम और ब्रह्मदत्त / देव-पद __ ४४६-प्रसुरिंदवज्जियाणं भवणवासीणं देवाणं उक्कोसेणं देसूणाई दो पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता। ४५०--सोहम्मे कप्पे देवाणं उक्कोसेणं दो सागरोवमाई ठिती पण्णता। ४५१-ईसाणे कप्पे देवाणं उक्कोसेणं सातिरेगाइं दो सागरोवमाइं ठिती पण्णता। 452- सणंकुमारे कप्पे देवाणं जहण्णणं दो सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता / ४५३-माहिद कप्पे देवाणं जहणणं साइरेगाइं दो सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता / 454 ---दोसु कप्पेसु कपित्थियाग्रो पण्णत्तानो, तजहा-सोहम्मे चेव, ईसाणे चव। ४५५-दोसु कप्पेसु देवा तेउलेस्सा पण्णत्ता, त जहा-सोहम्मे चे व, ईसाणे चव / ४५६-दोसू कप्पेस देवा कायपरियारगा पण्णत्ता, जहा सोहम्मे चव. ईसाणे चव। ४५७-दो कप्पेसु देवा फासपरियारगा पण्णत्ता, त जहा-सणकुमारे चे व, माहिदे चेव / ४५८-दोसु कप्पेसु देवा स्वपरियारगा पण्णत्ता, त जहा--बंभलोगे चेव, लंतगे चव / 456 - दोसु कप्पेसु देवा सहपरियारगा पण्णत्ता, त जहा महासुक्के चव, सहस्सारे चव। ४६०-दो इंदा मणपरियारगा पण्णत्ता, त जहा--पाणए चे व, अच्चुए चव / असुरेन्द्र को छोड़कर शेष भवनवासी देवों की उत्कृष्ट स्थिति कुछ कम दो पल्योपम कही गई है (446) / सौधर्म कल्प में देवों की उत्कृष्ट स्थिति दो सागरोपम कही गई है (450) / ईशानकल्प में देवों की उत्कृष्ट स्थिति दो सागरोपम से कुछ अधिक कही गई है (451) / सनत्कुमार कल्प में देवों की जघन्य स्थिति दो सागरोपम कही गई है (452) / माहेन्द्रकल्प में देवों की जघन्य स्थिति दो सागरोपम से कुछ अधिक कही गई है (453) / दो कल्पों में कल्पस्त्रियां (देवियां) कही गई हैंसौधर्मकल्प में और ईशानकल्प में (454) / दो कल्पों में देव तेजोलेश्यावाले कहे गये हैं-सौधर्मकल्प में और ईशान कल्प में (455) / दो कल्पो में देव काय-परिचारक (काय से संभोग करने वाले) कहे गये हैं-सौधर्मकल्प में और ईशानकल्प में (456) / दो कल्पों में देव स्पर्श-परिचारक (देवी के स्पर्शमात्र से वासनापूर्ति करने वाले) कहे गये हैं सनत्कुमार कल्प में और माहेन्द्र कल्प में (457) / दो कल्पों में देव रूप-परिचारक (देवी का रूप देखकर वासना-पूत्ति करने वाले) कहे गये हैं-ब्रह्मलोक में और लान्तक कल्प में (458) / दो कल्पों में देव शब्द-परिचारक (देवी के शब्द सुन कर वासना-पूत्ति करने वाले) कहे गये हैं-महाशुक्रकल्प में और सहस्रार कल्प में (456) / दो इन्द्र मनःपरिचारक (मन में देवी का स्मरण कर वासना-पूत्ति करने वाले) कहे गये हैं—प्राणतेन्द्र और अच्युतेन्द्र (460) / सू Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org