________________ 62] | स्थानाङ्गसूत्र गई है-मायारूपा और लोभरूपा (433) / द्वषप्रत्यया मूर्छा दो प्रकार की कही गई है-~-क्रोधरूपा और मानरूपा (434) / आराधना-पद ४३५-दुविहा प्राराहणा पण्णत्ता, त जहा-धम्मियाराहणा चेव, केवलिपाराहणा चव / ४३६-धम्मियाराहणा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-सुयधम्माराहणा चव, चरित्तधम्माराहणा चव / ४३७–केवलियाराहणा दुविहा पण्णत्ता, त जहा- अंतकिरिया चव, कप्पविमाणोववत्तिया चेव / ___ आराधना दो प्रकार की कही गई है-धार्मिक पाराधना (धार्मिक श्रावक-साधु जनों के द्वारा की जाने वाली पाराधना) और कैवलिकी आराधना (केवलियों के द्वारा की जाने वाली आराधना) (435) / धार्मिकी आराधना दो प्रकार की कही गई है---श्रु तधर्म की आराधना और चारित्रधर्म की आराधना (436) / कैवलिकी आराधना दो प्रकार की कही गई है-अन्तक्रियारूपा और कल्पविमानोपपत्तिका (437) / कल्पविमानोपपत्तिका आराधना श्रुतकेवली आदि की ही होतो है, केवलज्ञानकेवली की नहीं। केवलज्ञानी शैलेशीकरणरूप अन्तक्रिया आराधना ही करते हैं। तीर्थकर-वर्ण-पद ४३५-दो तित्थगरा गीलुप्पलसमा वणेणं पण्णत्ता, त जहा~मुणिसुधए चेव, अरिट्टणेमी चेव / ४३६-दो तित्थगरा पियंगुसामा वण्णेणं पण्णत्ता, त जहा-मल्ली चेव, पासे चेव / ४४०-दो तित्थगरा पउमगोरा वण्णेणं पण्णत्ता, त जहा--पउमपहे चव, वासुपुज्जे चव / ४४१-दो तित्थगरा चंदगोरा वष्णेणं पण्णत्ता, तं जहा-चंदप्पभे चव, पुष्फदंते चेव / दो तीर्थंकर नीलकमल के समान नीलवर्ण वाले कहे गये हैं-मुनिसुव्रत और अरिष्टनेमि (438) / दो तीर्थकर प्रियंगु (कांगनी) के समान श्यामवर्णवाले कहे गये हैं-मल्लिनाथ और पार्श्वनाथ (436) / दो तीर्थंकर पद्म के समान लाल गौरवर्णवाले कहे गये हैं-पद्मप्रभ और वासुपूज्य (440) / दो तीर्थंकर चन्द्र के समान श्वेत गौरवर्णवाले कहे गये हैं-चन्द्रप्रभ और पुष्पदन्त (441) / पूर्ववस्तु-पक्ष ४४२--सच्चप्पवायपुवस्स णं दुवे वत्थू पण्णता / सत्यप्रवाद पूर्व के दो वस्तु (महाधिकार) कहे गये हैं (442) / मक्षत्र-पद ४४३--पुव्वाभद्दवयाणवखत्ते दुतारे पण्णते। ४४४.-उत्तराभवयाणक्खत्ते दुतारे पण्णत्ते / ४४५--पुब्वफग्गुणोणक्खत्ते दुतारे पण्णते / ४४६---उत्तराफग्गुणोणवखत्ते दुतारे पण्णत्ते / पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र के दो तारे कहे गये हैं (443) / उत्तराभाद्रपद के दो तारे कहे गये हैं (444) / पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र के दो तारे कहे गये हैं (445) / उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के दो तारे कहे गये हैं (446) / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org