________________ द्वितीय स्थान-तृतीय उद्देश | 77 सुवप्र, दो महावप्र, दो वप्रकावती, दो वल्गु, दो सुवल्गु, दो गन्धिल और दो गन्धिलावती ये बत्तीस विजय क्षेत्र हैं। ३४१-दो खेमानो, दो खेमपुरीयो, दो रिट्ठाओ, दो रिट्टपुरीमो, दो खग्गीयो, दो मंजसानो, दो प्रोसधीप्रो, दो पोंडरिगिणीग्रो, दो सुसीमाम्रो, दो कुडलाओ, दो अपराजियाओ, दो पभंकराओ, दो अंकावईयो, दो पम्हावईनो, दो सुभाम्रो, दो रयणसंचयाश्रो, दो आसपुरानो, दो सोहपुरानो, दो महापुरानो, दो विजयपुराओ, दो अवराजितामो, दो प्रवरानो, दो असोयाओ, दो विगयसोगानो, दो विजयानो, दो वेजयंतीओ, दो जयंतीनो, दो अपराजियाओ, दो चक्कपुरानो, दो खम्गपुरानो, दो अवज्झायो, 'दो प्रउज्झायो।। उपर्युक्त बत्तीस विजयक्षेत्रों में दो क्षेमा, दो क्षेमपुरी, दो रिष्टा, दो रिष्टपुरी, दो खड्गी, दो मंजूषा, दो औषधी, दो पौण्डरीकिणी, दो सुसीमा, दो कुण्डला, दो अपराजिता, दो प्रभंकरा, दो अंकावती, दो पक्ष्मावती, दो शुभा, दो रत्नसंचया, दो अश्वपुरी, दो सिंहपुरी, दो महापुरी, दो विजयपुरी, दो अपराजिता, दो अपरा, दो अशोका, दो विगतशोका, दो विजया, दो वैजयन्ती, दो जयन्ती, दो अपराजिता, दो चक्रपुरी, दो खड्गपुरी, दो अवध्या और दो अयोध्या, ये बत्तीस नगरियाँ हैं (341) / ३४२-दो भद्दसालवणा, दो गंदणवणा, दो सोमणसवणा, दो पंडगवणाई। धातकोषण्ड द्वीप में दो मन्दरगिरियों पर दो भद्रशालवन, दो नन्दनवन, दो सौमनस बन और दो पण्डक वन हैं (342) / ३४३-दो पंडुकंबलसिलाओ, दो अतिपंडकंबलसिलामो, दो रत्तकंबलसिलामो, दो अइरतकंबलसिलाओ। उक्त दोनों पण्डक बनों में दो पाण्डुकम्बल शिला, दो अतिपाण्डुकम्बलशिला, दो रक्तकम्बल शिला और दो अतिरक्तकम्बल शिला (क्रम से चारों दिशाओं में अवस्थित) हैं (343) / ३४४-दो मंदरा, दो मंदरचलिग्रायो। 345-- धायइसंडस्स णं दीवस्स वेदिया दो गाउयाई उड्ढमुच्चत्तेणं पण्णत्ता / ३४६–कालोदस्स णं समुदस्स वेइया दो गाउयाई उड्ढं उच्चत्तेणं पण्णत्ता। धातकीषण्ड द्वीप में दो मन्दर गिरि हैं और उनकी दो मन्दरचूलिकाएँ हैं। धातकीषण्ड द्वीप की वेदिका दो कोश ऊंची कही गई है (345) / कालोद समुद्र की वेदिका दो कोश ऊंची कही गई है (346) / पुष्करवर-पद 347 ---पुक्खरवरदीवड्डपुरथिमद्ध णं मंदरस्स पव्वयस्स उत्तर-दाहिणे णं दो वासा पण्णत्ता बहुसमतुल्ला जाव त जहा-भरहे चे व, एरवए चेव / अर्ध पुष्करवर द्वीप के पूर्वार्ध में मन्दर पर्वत के उत्तर-दक्षिण में दो क्षेत्र कहे गये हैंदक्षिण में भरत और उत्तर में ऐरवत / वे दोनों क्षेत्र-प्रमाण की दृष्टि से सर्वथा सदश हैं, यावत् मायाम, विष्कम्भ, संस्थान और परिधि की अपेक्षा वे एक दूसरे का अतिक्रमण नहीं करते हैं (347) / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org