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________________ द्वितीय स्थान-तृतीय उद्देश | इसी प्रकार रुक्मी वर्षधर पर्वत के महापौण्डरीक द्रह नामक महाद्रह से नरकान्ता और रूप्यकूला नामकी दो महानदियाँ प्रवाहित होती हैं। प्रपातद्रह-पद २६४---जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणे णं भरहे वासे दो पवायदहा पण्णत्ताबहुसमतुल्ला, त जहा—गंगप्पवायदहे चे व, सिंधुप्पवायहहे चे व। जम्बुद्वीपनामक द्वीप में मन्दर पर्वत के दक्षिण में भरत क्षेत्र में दो प्रपातद्रह कहे गये हैंगंगाप्रपातद्रह और सिन्धु प्रपातद्रह / वे दोनों क्षेत्रप्रमाण की दृष्टि से सर्वथा सदृश हैं, यावत्, पायाम, विष्कम्भ, उद्वधा, संस्थान और परिधि की अपेक्षा वे एक दूसरे का अतिक्रमण नहीं करते हैं / २६५-एवं-हेमवए वासे दो पवायदहा पण्णत्ता-- बहुसमतुल्ला, त जहा-रोहियप्पवायदहे चव, रोहियंसथ्यवायहहे च व / इसी प्रकार हैमवत क्षेत्र में दो प्रपातद्रह कहे गये हैं रोहितप्रपात द्रह और रोहितांश प्रपात द्रह / वे दोनों क्षेत्र-प्रमाण की दृष्टि से सर्वथा सदृश हैं, यावत् आयाम, विष्कम्भ, उद्वेध, संस्थान और परिधि की अपेक्षा ये एक दूसरे का अतिक्रमण नहीं करते हैं / २६६–जंबद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणे णं हरिवासे वासे दो पवायदहा पण्णताबहुसमतुल्ला, त जहा-हरिपवायदहे चेब, हरिकंतप्पवायहहे चेव / जम्बूद्वीपनामक द्वीप में मन्दर पर्वत के दक्षिण में हरि वर्ष क्षेत्र में दो प्रपातद्रह कहे गये हैं-हरितप्रपात द्रह और हरिकान्तप्रपात द्रह / वे दोनों क्षेत्र-प्रमाण की दृष्टि से सर्वथा सदृश हैं, यावत् पायाम, विष्कम्भ, उद्वेध, संस्थान और परिधि की अपेक्षा वे एक दूसरे का अतिक्रमण नहीं करते हैं। २६७–जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तर-दाहिणे णं महाविदेहे वासे दो पवायदहा पण्णत्ता-बहुसमतुल्ला जाव त जहा–सीतप्पवायद्दहे चे व, सोतोदप्पवायद्दहे चेव / ___ जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत के उत्तर-दक्षिण में महाविदेह क्षेत्र में दो महाप्रपातद्रह कहे गये हैं-सीताप्रपातद्रह और सीतोदाप्रपातद्रह। ये दोनों क्षेत्र-प्रमाण की दृष्टि से सर्वथा सदृश हैं, यावत् आयाम, विष्कम्भ, उद्वेध, संस्थान और परिधि की अपेक्षा वे एक दूसरे का अतिक्रमण नहीं करते हैं। २६८–जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरे णं रम्मए वासे दो पवायदहा पण्णत्ताबहुसमतुल्ला जाव त जहाणरकंतप्पवाय(हे व, णारिकंतप्पवायदहे चव। जम्बूद्वीपनामक द्वीप में मन्दर पर्वत के उत्तर में रम्यक क्षेत्र में दो प्रपातद्रह कहे गये हैंनरकान्ता प्रपातद्रह और नारीकान्ताप्रपातद्रह / वे दोनों क्षेत्र-प्रमाण की दृष्टि से सर्वथा सदृश हैं, यावत् आयाम, विष्कम्भ, उद्वेध, संस्थान और परिधि की अपेक्षा वे एक दूसरे का अतिक्रमण नहीं करते हैं। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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