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________________ [स्थानाङ्गसूत्र कहा गया है। मनुष्य और पंचेन्द्रिय तिर्यंचों का जन्म माता के गर्भ से होता है, अतः उसे गर्भ-व्युत्क्रांति कहते हैं। गर्भस्थ-पद २५४-दोण्हं गम्भत्थाणं पाहारे पण्णत्ते, त जहा--मणुस्साणं चेव, पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं चेव / २५५-दोण्हं गन्भत्थाणं वुड्डी पण्णता, त जहा--मणुस्साणं चे व, पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं च व। २५६-दोण्हं गब्भत्थाणं-णिवुड्डी विगुब्वणा गतिपरियाए समुग्धाते कालसंजोगे आयाती मरणे पण्णत्ते, तं जहा-मणुस्साणं च व, पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं चेव / 257 ---दोण्हं छविपव्या पण्णता, त जहा---मणुस्साणं चव, पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं चव / २५८--दो सुक्कसोणितसंभवा पण्णता, तं जहा--मणुस्सा चव, पंचिदियतिरिक्खजोणिया चव। दो प्रकार के जीवों का गर्भावस्था में प्राहार कहा गया है - मनुष्यों का और पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकों का (इन दो के सिवाय अन्य जीवों का गर्भ होता ही नहीं है।) (254) / दो प्रकार के गर्भस्थ जीवों की गर्भ में रहते हुए शरीर-वृद्धि कही गई है-मनुष्यों की और पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकों की (255) / दो गर्भस्थ जीवों की गर्भ में रहते हुए हानि, विक्रिया, गतिपर्याय, समुद्घात, कालसंयोग, गर्भ से निर्गमन और गर्भ में मरण कहा गया है-मनुष्यों का तथा पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकों का (256) / दो के चर्म-युक्त पर्व (सन्धि-बन्धन) कहे गये हैं- मनुष्यों के और पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकों के (257) / दो शुक्र (वीर्य) और शोणित (रक्त-रज) से उत्पन्न कहे गये हैं—मनुष्य और पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव (258) / स्थिति-पद २५६-दुविहा ठिती पण्णत्ता, तजहा कायद्विती चव, भवद्धिती घेव। २६०-दोण्हं कायट्टिती पण्णत्ता, त जहा--मणुस्साणं चेव, पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं च व। 261-- दोण्हं भवद्विती पण्णत्ता, त जहा-देवाणं चे व, रइयाणं चेव / स्थिति दो प्रकार की कही गई है-कायस्थिति (एक ही काय में लगातार जन्म लेने की कालमर्यादा) और भवस्थिति (एक ही भव की काल-मर्यादा) (256) / दो की कायस्थिति कही गई है-- मनुष्यों की और पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकों की (260) / दो की भवस्थिति कही गई है-देवों की और नारकों की (261) / विवेचन-पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के अतिरिक्त एकेन्द्रिय, आदि तियंचों की भी कायस्थिति होती है। इस सत्र से उनकी कायस्थिति का निषेध नहीं समझना चाहिए। प्रस्तत सत्र अन्ययोगव्यवच्छेदक नहीं, प्रयोगव्यवच्छेदक है, अर्थात् दो की कायस्थिति का विधान ही करता है, अन्य की कायस्थिति का निषेध नहीं करता / देव और नारक जीव मर कर पुनः देव-नारक नहीं होते, अत: उनकी कायस्थिति नहीं होती, मात्र भवस्थिति ही होती है। आयु-पद २६२–दुविहे पाउए पण्णत्ते, त जहा—श्रद्धाउए चेव, भवाउए चेव / २६३-दोण्हं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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