________________ द्वितीय स्थान-तृतीय उद्देश इतना है कि जब वह खा-पीकर स्वीकार की जाती है, तब वह सात दिन के उपवास से पूरी होती है और यदि बिना खाये-पिये स्वीकार की जाती है तो आठ दिन के उपवास से पूरी होती है। 11. यवमध्य चन्द्र प्रतिमा-जिस प्रकार यव (जौ) का मध्य भाग स्थूल और दोनों ओर के भाग कृश होते हैं, उसी प्रकार से इस साधना में कवल (ग्नास) ग्रहण मध्य में सबसे अधिक और आदिअन्त में सबसे कम किया जाता है / इसकी विधि यह है इस प्रतिमा का साधक साधु शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को एक कवल आहार लेता है / पुनः तिथि के अनुसार एक कवल आहार बढ़ाता हुआ शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को पन्द्रह कवल आहार लेता है / पुनः कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा को 14 कवल आहार लेकर क्रम से एक-एक कवल घटाते हुए अमावस्या को उपवास करता है / चन्द्रमा की एक-एक कला शुक्ल पक्ष में जैसे बढ़ती है और कृष्णपक्ष में एक-एक घटती है उसी प्रकार इस प्रतिमा में कवलों की वृद्धि और हानि होने से इसे यवमध्य चन्द्र प्रतिमा कहा गया है। 12. वज्रमध्य चन्द्र प्रतिमा--जिस प्रकार वज्र का मध्य भाग कृश और आदि-अन्त भाग स्थूल होता है, उसी प्रकार जिस साधना में कवल-ग्रहण आदि-अन्त में अधिक और मध्य में एक भी न हो, उसे वज्रमध्य चन्द्र प्रतिमा कहते हैं। इसे साधनेवाला साधक कृष्णपक्ष की प्रतिपदा को 14 कवल आहार लेकर क्रम से चन्द्रकला के समान एक-एक कवल घटाते हुए अमावस्या को उपवास करता है। पुनः शुक्लपक्ष में प्रतिपदा के दिन एक कवल ग्रहण कर एक-एक कला वृद्धि के समान एक-एक कवल वृद्धि करते हुए पूर्णिमा को 15 कवल अाहार ग्रहण करता है। सामायिक-पद २४६-दुविहे सामाइए पण्णत्ते, त जहा–अगारसामाइए चेव, अणगारसामाइए चेव / सामायिक दो प्रकार की कही गई है—अगार-(श्रावक) सामायिक अर्थात् देशविरति और अनगार-(साधु)-सामायिक अर्थात् सर्वविरति (246) / जन्म-मरण-पद १५०-दोण्हं उववाए पण्णत्ते, त जहा-देवाणं चेव, रइयाणं चेव। २५१-दोन्ह उन्वट्टणा पण्णत्ता, त जहा–णेर इयाणं चेव, भवणवासीणं चेव / २५२----दोण्हं चवणे पण्णत्ते, त जहा--जोइसियाणं चेव, वेमाणियाणं चेव / 253- दोण्हं गम्भवक्कंती पण्णत्ता, तं जहामणुस्साणं चैव, पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं चेव / दो का उपपात जन्म कहा गया है--देवों का और नारकों का (250) / दो का उद्वर्तन कहा गया है-नारकों का और भवनवासी देवों का (251) / दो का च्यवन होता है-ज्योतिष्क देवों का और वैमानिक देवों का (252) / दो की गर्भव्युत्क्रान्ति कही गई है—मनुष्यों की और पञ्चेन्द्रियतियंग्योनिक जीवों की (253) / विवेचन–देव और नारकों का उपपात जन्म होता है। च्यवन का अर्थ है ऊपर से नीचे आना और उद्वर्तन नाम नीचे से ऊपर आने का है। नारक और भवनवासी देव मरण कर नीचे से ऊपर मध्यलोक में जन्म लेते हैं, अत: उनके मरण को उद्वर्तन कहा गया है। तथा ज्योतिष्क और विमानवासी देव मरण कर ऊपर से नीचे-मध्यलोक में जन्म लेते हैं, अतः उनके मरण को च्यवन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org