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________________ द्वितीय स्थान-तृतीय उद्देश ] [ 57 पुद्गल-पद २२१---दोहि ठाणेहिं पोग्गला साहणंति, त जहा-- सई वा पोग्गला साहणंति, परेण वा पोग्गला साहणंति / २२२--दोहि ठाणेहि पोग्गला भिज्जति, त जहा–सई वा पोग्गला भिज्जंति, परेण वा पोग्गला भिज्जति / २२३-दोहि ठाणेहि परिपडंति, त जहा—सई वा पोग्गला परिपडंति, परेण वा पोग्गला परिपडंति / २२४---दोहि ठाणेहि पोग्गला परिसडंति, तं जहा-सई वा पोग्गला परिसडंति, परेण वा पोग्गला परिसडंति / २२५-दोहि ठाणेहि पोग्गला विद्ध संति, त जहा-सइंवा पोग्गला विद्ध संति, परेण वा पोग्गला विद्ध संति / दो कारणों से पुद्गल संहत (समुदाय को प्राप्त) होते हैं—मेघादि के समान स्वयं अपने स्वभाव से पुद्गल संहत होते हैं और पुरुष के प्रयत्न आदि दूसरे निमित्तों से भी पुद्गल संहत होते हैं (221) / दो कारणों से पुद्गल भेद को प्राप्त होते हैं- स्वयं अपने स्वभाव से पुद्गल भेद को प्राप्त प्राप्त होते हैं-बिछुड़ते हैं और दूसरे निमित्तों से भी पुद्गल भेद को प्राप्त होते हैं (222) / दो कारणों से पुद्गल नीचे गिरते हैं--स्वयं अपने स्वभाव से पुद्गल नीचे गिरते हैं और दूसरे निमित्तों से भी पुद्गल नीचे गिरते हैं (223) / दो कारणों से पुद्गल परिशडित होते है-स्वयं अपने स्वभाव से कुष्ठ आदि से गलकर शरीर से पुद्गल नीचे गिरते हैं। और दूसरे शास्त्र-छेदनादि निमित्तों से विकृत पुद्गल नीचे गिरते हैं (224) / दो स्थानों से पुद्गल विध्वंस को प्राप्त होते हैं-स्वयं अपने स्वभाव से पुद्गल विध्वंस को प्राप्त होते हैं और दूसरे निमित्तों से भी पुद्गल विध्वंस को प्राप्त होते हैं (225) / २२६-दुविहा पोग्गला पण्णता, त जहा–भिण्णा चव, अभिण्णा चव। २२७–दुविहा पोग्गला पण्णता, त जहा–भेउरधम्मा चेव, णोभेउरधम्मा चव। २२५-दुविहा पोग्गला पण्णत्ता, तं जहा–परमाणुपोग्गला चेव, णोपरमाणुपोग्गला चेव / २२६–दुविहा पोग्गला पण्णत्ता, त जहा–सुहुमा चेव, बायरा चेव / २३०-दुविहा पोग्गला पण्णत्ता, त जहा-बद्धपासपुट्ठा चेव, णोबद्धपासपुट्ठा चेव / पुद्गल दो प्रकार के कहे गये हैं-भिन्न और अभिन्न (226) / पुनः पुद्गल दो प्रकार के कहे गये हैं-भिदुरधर्मा (स्वयं ही भेद को प्राप्त होने वाले) और नोभिदुरधर्मा (स्वयं भेद को नहीं प्राप्त होने वाले) (227) / पुनः पुद्गल दो प्रकार के कहे गये हैं—परमाणु पुद्गल और नोपरमाणु रूप (स्कन्ध) पुद्गल (228) / पुनः पुद्गल दो प्रकार के कहे गये हैं—सूक्ष्म और बादर (226) / पुनः पुद्गल दो प्रकार के कहे गये हैं-बद्ध-पार्श्वस्पृष्ट और नोबद्ध-पार्श्वस्पृष्ट (230) / विवेचन-जो पुद्गल शरीर के साथ गाढ़ सम्बन्ध को प्राप्त रहते हैं वे बद्ध कहलाते हैं और जो पुद्गल शरीर से चिपके रहते हैं उन्हें पार्श्वस्पृष्ट कहते हैं / घ्राणेन्द्रिय से ग्राह्य गन्ध, रसनेन्द्रिय से ग्राह्य रस और स्पर्शनेन्द्रिय से ग्राह्य स्पर्शरूप पुद्गल बद्धपार्श्वस्पृष्ट होते हैं / अर्थात स्पर्शन, रसना और घ्राणेन्द्रिय के साथ स्पर्श, रस एवं गंध का गाढा संबंध होने पर ही इनका ग्रहण-ज्ञान होता है / कर्णेन्द्रिय से ग्राह्य शब्द पुद्गल नोबद्ध किन्तु पार्श्वस्पष्ट हैं अर्थात् श्रोत्रेन्द्रिय पार्श्वस्पष्ट शब्द को ग्रहण कर लेती है / उसे गाढ संबंध की आवश्यकता नहीं होती। नेत्रेन्द्रिय अपने विषयभूत रूप को अबद्ध और अस्पृष्ट रूप से ही जानती है। इसलिए उसका निर्देश इस सूत्र में नहीं किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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