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________________ द्वितीय स्थान-प्रथम उद्देश] / 43 __ विवेचन यहां सूक्ष्म और बादर का अर्थ छोटा या मोटा अभीष्ट नहीं है, किन्तु जिनके सूक्ष्म नामकर्म का उदय हो उन्हें सूक्ष्म और जिनके बादर नामकर्म का उदय हो उन्हें बादर जानना चाहिए / बादरजीव भूमि, वनस्पति आदि के आधार से रहते हैं किन्तु सूक्ष्म जीव निराधार और सारे लोक में व्याप्त हैं / सूक्ष्म जीवों के शरीर का आघात-प्रतिघात और ग्रहण नहीं होता / किन्तु स्थूल जीवों के शरीर का आघात, प्रतिघात और ग्रहण होता है / प्रत्येक जीव नवीन भव में उत्पन्न होने के साथ अपने शरीर के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है, जिससे उसके शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ वास भाषा आदि का निर्माण होता है / उन पुद्गलों के ग्रहण करने की शक्ति अन्तर्मुहूर्त में प्राप्त हो जाती है। ऐसी शक्ति से सम्पन्न जीवों को पर्याप्तक कहते हैं / और जब तक उस शक्ति की पूर्ण प्राप्ति नहीं होती है, तब तक उन्हें अपर्याप्तक कहा जाता है। द्रव्य-पद १३८-दुविहा दव्वा पण्णत्ता, त जहा-परिणया चेव, अपरिणया चले। __ द्रव्य दो प्रकार के कहे गये हैं--परिणत (बाह्य कारणों से रूपान्तर को प्राप्त) और अपरिणत (अपने स्वाभाविक रूप से अवस्थित) (138) / जीव-निकाय-पद १३६--दुविहा पुढविकाइया पण्णता, तजहा--गतिसमावण्णगा चेव, प्रगतिसमावण्णगा चे व / १४०-दुविहा पाउकाइया पण्णत्ता, त जहा-गतिसमावण्णगा चेव, प्रगतिसमावण्णगा चेव / 141 --दुविहा तेउकाइया पण्णत्ता, त जहा-गतिसमावण्णगा चव, प्रगतिसमावण्णगा चेव / १४२–दुविहा वाउकाइया पण्णत्ता, त जहा-गतिसमाधण्णगा चव, प्रगतिसमावण्णगा चेछ / 143 -दुविहा वणस्सइकाइया पण्णता, त जहातिसमावण्णगा चव, प्रगतिसमावण्णगा चेव / पृथ्वीकायिक जीब दो प्रकार के कहे गये हैं--गतिसमापन्नक (एक भव से दूसरे भव में जाते समय अन्तराल गति में वर्तमान) और अगति-समापन्नक (वर्तमान भव में अवस्थित (136) / अप्कायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं-गतिसमापन्नक और प्रगतिसमापन्नक (140) / तेजस्कायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं--गतिसमापन्नक और अगतिसमापनक (141) / वायुकायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं--गतिसमापन्नक और अगतिसमापन्नक (132) / वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं--गतिसमापन्नक और अगतिसमापन्नक (143) / द्रव्य-पद १४४-दुविहा दवा पण्णत्ता, त जहा---गतिसमावण्णगा चेव, अगतिसमावण्णगा चेव / द्रव्य दो प्रकार के कहे गये हैं--गतिसमापन्नक (गमन में प्रवृत्त) और अगतिसमापन्नक (अवस्थित) (144) / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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