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________________ 42] [ स्थानाङ्गसूत्र ऊपर श्रेणी चढ़ने वाले जीव के संयम को विशुद्धयमान और उपशम श्रेणो करके नीचे गिरने वाले के संयम को संक्लिश्यमान कहते हैं। उनके भी प्रथम और अप्रथम तथा चरम और अचरम को उक्त प्रकार से जानना चाहिए। सयोगि-अयोगि केवली के प्रथम-अप्रथम एवं चरम-अचरम समयों की भावना भी इसी प्रकार करनी चाहिए। जीव-निकाय-पद १२३---दुविहा पुढविकाइया पण्णत्ता, तं जहा-सुहमा चेव, बायरा चेव / १२४-दुविहा प्राउकाइया पण्णत्ता, त जहा-सुहमा चे व, बायरा चेव / 125-- दुविहा तेउकाइया पण्णत्ता, त जहा-सुहमा चेव, बायरा चेव / १२६-दुविहा वाउकाइया पण्णत्ता, तं जहा-सुहमा चे व बायरा चेव / 127 --दुविहा वणस्सइकाइया पण्णत्ता, त जहा- सुहमा चव, बायरा चेव / १२८–दुविहा पुढविकाइया पण्णत्ता, तजहा-पज्जत्तगा चव, अपज्जत्तगा चेव / १२६-दुविहा पाउकाइया पण्णत्ता, तजहा–पज्जत्तगा चेव, अपज्जत्तगा चेव / १३०-दुविहा तेउकाइया पणत्ता, त जहापज्जत्तगा चेव अपज्जत्तगा चेव / १३१-दविहा वाउकाइया पण्णत्ता, त जहा-पज्जत्तगा चेव, प्रपज्जत्तगा चेव। १३२-दुविहा वणस्सइकाइया पण्णत्ता, तं जहा—पज्जत्तगा चेव, अपज्जत्तगा चव। १३३–दुविहा पुढविकाइया पण्णता, त जहा-परिणया चव, अपरिणया चेव / १३४–दुविहा पाउकाइया पण्णता, तं जहा-परिणया चे व, अपरिणया चव। १३५--दुविहा तेउकाइया पण्णत्ता, त जहा---परिणया चव, प्रपरिणया चेव / १३६-दुबिहा बाउकाइया पण्णत्ता, त जहा-परिणया चेव, अपरिणया चेव। १३७-दुविहा वणस्सइकाइया पण्णत्ता, त जहा-परिणया चेय, अपरिणया चेव / पृथ्वीकायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं- सूक्ष्म और बादर (123) / अप्कायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं—सूक्ष्म और बादर (124) / तेजस्कायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं—सूक्ष्म और बादर (125) / वायुकायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं—सूक्ष्म और बादर (126) / वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं-सूक्ष्म और बादर (127) / पुनः पृथ्वीकायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं---पर्याप्तक और अपर्याप्तक (128) / अप्कायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं--पर्याप्तक और अपर्याप्तक (126) / तेजस्कायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं-पर्याप्तक और अपर्याप्तक (130) / वायुकायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं--पर्याप्तक और अपर्याप्तक (131) / वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं- पर्याप्तक और अपर्याप्तक (132) / पुन: पृथ्वीकायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं-परिणत (बाह्य शस्त्रादि कारणों से जो अन्य रूप हो गया-प्रचित्त हो गया है)। और अपरिणत (जो ज्यों का त्यों सचित्त है) (133) / अप्कायिक जीव दो प्रकार के कहे हैं--परिणत और अपरिणत (134) / तेजस्कायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं--परिणत और अपरिणत (135) / वायुकायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं-- परिणत और अपरिणत (136) / वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं--परिणत और अपरिणत (137) / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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