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________________ ४४ अनुयोगद्वारसूत्र अकृत्स्नस्कन्ध ६७. से किं तं अकसिणखंधे ? अकसिणखंधे से चेव दुपएसियादी खंधे जाव अणंतपदेसिए खंधे । से तं अकसिणखंधे [६७ प्र.] भगवन् ! अकृत्स्नस्कन्ध का क्या स्वरूप है ? [६७ उ.] आयुष्मन् ! अकृत्स्नस्कन्ध पूर्व में कहे गये द्विप्रदेशिक स्कन्ध आदि यावत् अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध हैं। इस प्रकार अकृत्स्नस्कन्ध का स्वरूप जानना चाहिए। विवेचन— सूत्र में अकृत्स्नस्कन्ध की व्याख्या की है। अकृत्स्न यानि अपरिपूर्ण । अतएव जिस स्कन्ध से अन्य कोई दूसरा बड़ा स्कन्ध होता है, वह अपरिपूर्ण होने के कारण अकृत्स्नस्कन्ध है। द्विप्रदेशिक आदि स्कन्ध अपूर्ण हैं और इनमें अपरिपूर्णता इस प्रकार है कि द्विप्रदेशिक स्कन्ध त्रिप्रदेशिक स्कन्ध से न्यून होने के कारण अपरिपूर्ण है। इसी तरह उत्तरोत्तर की अपेक्षा पूर्व-पूर्व का स्कन्ध अकृत्स्नस्कन्ध जानना चाहिए। यह अकृत्स्नता कृत्स्नता प्राप्त होने के पूर्व तक होती है। - पूर्व में द्विप्रदेशिक आदि से लेकर अनन्त प्रदेश वाले स्कन्ध सामान्य रूप से अचित्त कहे हैं। परन्तु अकृत्स्नद्रव्यस्कन्ध के प्रकरण में सर्वोत्कृष्ट स्कन्ध से नीचे के स्कन्ध ही उत्तरोत्तर की अपेक्षा अकृत्स्नस्कन्ध रूप में ग्रहण किये हैं। यही इन दोनों में भेद है। अनेकद्रव्यस्कन्ध ६८. से किं तं अणेगदवियखंधे ? अणेगदवियखंधे तस्सेव देसे अवचिते तस्सेव देसे उवचिए । से तं अणेगदवियखंधे । से तं जाणगसरीरभवियसरीरवतिरित्ते दव्वखंधे । से तं नोआगमतो दव्वखंधे । से तं दव्वखंधे । [६८ प्र.] भगवन् ! अनेकद्रव्यस्कन्ध का क्या स्वरूप है ? [६८ उ.] आयुष्मन् ! एकदेश अपचित और एकदेश उपचित भाग मिलकर उनका जो समुदाय बनता है, वह अनेकद्रव्यस्कन्ध है। ___ इस प्रकार से ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यस्कन्ध का निरूपण समाप्त हुआ और इसकी समाप्ति के साथ नोआगम द्रव्यस्कन्ध का और साथ ही द्रव्यस्कन्ध का वर्णन भी पूर्ण हुआ जानना चाहिए। विवेचन— सूत्रार्थ स्पष्ट है। इसमें विशेष कथनीय यह है कि एक देश अपचित भाग अर्थात् जीवप्रदेशों से रहित (अचेतन) नख केशादि रूप भाग एवं एकदेश उपचित—जीवप्रदेशों से व्याप्त पीठ, उदर आदि भाग के संयोग से एक विशिष्ट आकार वाला जो देह रूप समुदाय बनता है, वह अनेकद्रव्यस्कन्ध है। जैसे हयस्कन्ध, गजस्कन्ध आदि। - यद्यपि यह अनेकद्रव्यस्कन्ध भी कृत्स्नस्कन्ध की तरह हयादि स्कन्ध रूप से प्रतीत होता है, फिर भी दोनों में यह अंतर है कि कृत्स्नस्कन्ध में तो मात्र जीव के प्रदेशों से व्याप्त शरीरावयव रूप देश को ही विवक्षित किया है, जीव-प्रदेशों से अव्याप्त नखादि प्रदेशों को नहीं, किन्तु अनेकद्रव्यस्कन्ध में पूर्वोक्त के साथ नखादि रूप अचेतन देश
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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