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________________ २६ अनुयोगद्वारसूत्र लौकिक आवश्यक हैं और उनके अर्थ में वक्ता एवं श्रोता के उपयोगरूप परिणाम होने से भावरूपता है। किन्तु वांचने वाले का बोलने, पुस्तक के पन्ने पलटने, हाथ का संकेत करने तथा श्रोता के हाथों को जोड़े रहने आदि रूप क्रियायें आगमरूप नहीं हैं। क्योंकि 'किरिया आगमो न होइ'–क्रिया आगम नहीं होती है, ज्ञान ही आगमरूप है। इसलिए क्रियारूप देश में आगम का अभाव होने से नोआगमता है। इस तरह एकदेश में आगमता की अपेक्षा यह लौकिक-भावावश्यक का स्वरूप जानना चाहिए। कुप्रावचनिक भावावश्यक २७. से किं तं कुप्पावयणियं भावावस्सयं ? कुप्पावयणियं भावावस्सयं जे इमे चरग-चीरिय-जाव पासंडत्था इजंजलि-होम-जप्प-उंदुरुक्कनमोक्कारमाइयाइं भावावस्सयाई करेंति । से तं कुप्पावयणियं भावावस्सयं । [२७ प्र.] भगवन् ! कुप्रावचनिक भावावश्यक का क्या स्वरूप है ? । [२७ उ.] आयुष्मन् ! जो ये चरक, चीरिक, यावत् पाषण्डस्थ (उपयोगपूर्वक) इज्या यज्ञ, अंजलि, होम हवन, जाप, उन्दुरुक्क–धूपप्रक्षेप या बैल जैसी ध्वनि, वंदना आदि भावावश्यक करते हैं, वह कुप्रावचनिक भावावश्यक है। विवेचन— सूत्र में कुप्रावचनिक भावावश्यक का स्वरूप बतलाया है। मिथ्याशास्त्रों को मानने वाले चरक, चीरिक आदि पाषंडी यथावसर जो भावसहित यज्ञ आदि क्रियायें करते हैं, वह कुप्रावचनिक भावावश्यक है। __ चरक आदि द्वारा अवश्य ही निश्चित रूप से किये जाने से ये यज्ञ आदि आवश्यक रूप हैं तथा इनके करने वालों की उन क्रियाओं में उपयोग एवं श्रद्धा होने से भावरूपता है। तथा इन चरकादि का उन क्रियाओं सम्बन्धी उपयोग तो देशतः आगम रूप है और हाथ, सिर आदि द्वारा होने वाली प्रवृत्ति आगमरूप नहीं है। इसीलिए आगम के एक देश की अपेक्षा नोआगम है। कतिपय शब्दों के विशिष्ट अर्थ- इज्जंजलि (इज्यांजलि)—यज्ञ और तन्निमित्तिक जलधारा प्रक्षेप छोड़ना। अथवा इज्या—पूजा गायत्री आदि के पाठपूर्वक ब्राह्मणों द्वारा की जाने वाली संध्योपासनां और अंजलिहाथ जोड़कर नमस्कार करना अथवा इज्या माता आदि गुरुजनों को अंजलि-नमस्कार करना। उन्दुरुक्कउन्दु-मुख और रुक्क बैल जैसी ध्वनि करना, अर्थात् मुख से बैल जैसी गर्जना करना अथवा धूपप्रक्षेप करना। लोकोत्तरिक भावावश्यक २८. से किं तं लोगोत्तरियं भावावस्सयं ? लोगोत्तरियं भावावस्सयं जण्णं इमं समणे वा समणी वा सावए वा साविया वा तच्चित्ते तम्मणे तल्लेसे तयज्झवसिते तत्तिव्वज्झवसाणे तयट्ठोवउत्ते तयप्पियकरणे तब्भावणाभाविते अण्णत्थ कत्थइ मणं अकरेमाणे उभओकालं आवस्सयं करेंति, से तं लोगोत्तरियं भावावस्सयं । से तं नोआगमतो भावावस्सयं । से तं भावावस्सयं । [२८ प्र.] भगवन् ! लोकोत्तरिक भावावश्यक का क्या स्वरूप है ?
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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