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________________ २४ अनुयोगद्वारसूत्र [२२ प्र.] भगवन् ! लोकोत्तरिक द्रव्यावश्यक का क्या स्वरूप है ? [२२ उ.] आयुष्मन् ! लोकोत्तरिक द्रव्यावश्यक का स्वरूप इस प्रकार है—जो (साधु) श्रमण के (मूल और उत्तर) गुणों से रहित हों, छह काय के जीवों के प्रति अनुकम्पा न होने के कारण अश्व की तरह उद्दाम (शीघ्रगामी—जल्दी-जल्दी चलने वाले) हों, हस्तिवत् निरंकुश हों, स्निग्ध पदार्थों के लेप से अंग-प्रत्यंगों को कोमल, सलौना बनाते हों, जल आदि से बारंबार शरीर को धोते हों, अथवा तेलादि से केशों कर संस्कार करते हों, ओठों को मुलायम रखने के लिए मक्खन लगाते हों, पहनने-ओढने के वस्त्रों को धोने में आसक्त हों और जिनेन्द्र भगवान् की आज्ञा की उपेक्षा कर स्वच्छंद विचरण करते हों, किन्तु उभयकाल (प्रातः सायंकाल) आवश्यक करने के लिए तत्पर हों तो उनकी वह क्रिया लोकोत्तरिक द्रव्यावश्यक है। इस प्रकार यह ज्ञायकशरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्त द्रव्यावश्यक का स्वरूप जानना चाहिए। यह नोआगमद्रव्यावश्यक का निरूपण हुआ और साथ ही द्रव्यावश्यक की वक्तव्यता भी पूर्ण हुई। विवेचन— सूत्र में उभयव्यतिरिक्त द्रव्यावयक के तीसरे भेद का स्वरूप स्पष्ट करते हुए नोआगमद्रव्यावश्यक एवं द्रव्यावश्यक की वक्तव्यता का उपसंहार किया है। लोक में श्रेष्ठ साधुओं द्वारा आचरित एवं लोक में उत्तर-उत्कृष्टतर जिनप्रवचन में वर्णित होने से आवश्यक लोकोत्तरिक है। किन्तु श्रमणगुण से रहित स्वच्छन्दविहारी द्रव्यलिंगी साधुओं द्वारा किये जाने से वह आवश्यककर्म अप्रधान होने के कारण द्रव्यावश्यक है तथा भावशून्यता के कारण उसका कोई फल प्राप्त नहीं होता है। प्रस्तुत में 'नो' शब्द एकदेश प्रतिषेध अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। क्योंकि प्रतिक्रमणक्रिया रूप एकदेश में आगमरूपता नहीं है, किन्तु उसके ज्ञान का सद्भाव होने से आगम की एकदेशता है। इस प्रकार क्रिया की दृष्टि से आगम का अभाव और ज्ञान की दृष्टि से आगम का सद्भाव प्रकट करने से 'नो' शब्द में देशप्रतिषेधरूपता है। इस प्रकार सप्रभेद द्रव्यावश्यक का निरूपण जानना चाहिए। अब क्रमप्राप्त भावावश्यक का वर्णन करते हैं। भावावश्यक २३. से किं तं भावावस्सयं ? भावावस्सयं दुविहं पण्णत्तं । तं जहा—आगमतो य १ णोआगमतो य २ । [२३ प्र.] भगवन् ! भावावश्यक का क्या स्वरूप है ? [२३ उ.] आयुष्मन् ! भावावश्यक दो प्रकार का है—१. आगमभावावश्यक और २. नोआगमभावावश्यक। विवेचन— प्रस्तुत में भेदों द्वारा भावावश्यक का स्वरूपवर्णन प्रारम्भ किया है। विवक्षित क्रिया के अनुभव से युक्त अर्थ को भाव कहते हैं। अत: यहां भावः शब्द विवक्षित क्रिया के अनुभव से युक्त साध्वादि के लिए प्रयुक्त हुआ है और उनका आवश्यक भावावश्यक है। यह कथन भाव.और भाववान् में अभेदोपचार की अपेक्षा किया गया है। जैसे ऐश्वर्य रूप इन्दन क्रिया के अनुभव से युक्त को भावतः इन्द्र कहा जाता है अथवा विवक्षित क्रिया के अनुभव रूप भाव को लेकर जो आवश्यक होता है वह भावावश्यक है। इस भावावश्यक के दो भेद हैं । क्रम से जिनका वर्णन इस प्रकार है
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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