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आवश्यकनिरूपण
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आवश्यक और अनेक अनुपयुक्त आत्माएं अनेक द्रव्य - आवश्यक हैं, ऐसा स्वीकार नहीं करता है । वह सभी आत्माओं को एक द्रव्य - आवश्यक ही मानता है ।
[४] उज्जुसुयस्स एगो अणुवउत्तो आगमओ एगं दव्वावस्सयं, पुहत्तं नेच्छइ ।
[१५-४] ऋजुसूत्रनय के मत से एक अनुपयुक्त आत्मा एक आगमद्रव्य - आवश्यक है । वह पृथक्त्व—भेदों को स्वीकार नहीं करता है।
[५] तिहं सहनयाणं जाणए अणुवउत्ते अवत्थू । कम्हा ? जइ जाणए अणुवउत्ते ण भवति । सेतं आगमओ दव्वावस्सयं ।
[१५-५] तीनों शब्दनय (शब्द, समभिरूढ, एवंभूत नय) ज्ञायक यदि अनुपयुक्त हो तो उसे अवस्तु (असत्) मानते हैं। क्योंकि जो ज्ञायक है वह उपयोगशून्य नहीं होता है और जो उपयोगरहित है उसे ज्ञायक नहीं
कहा जा सकता ।
यह आगम से द्रव्य-आवश्यक का स्वरूप है।
विवेचन — सूत्र
'में आगमद्रव्य - आवश्यक के विषय में नयों का मन्तव्य स्पष्ट किया है।
वस्तु अनन्त धर्मात्मक है। किन्तु वचन में एक समय में एक ही धर्म का कथन करने की योग्यता होने से उस एक धर्म के ग्राहक बोध को नय कहते हैं । प्रत्येक वस्तु में अनन्त धर्मों के होने से नयों की संख्या भी अनन्त है, तथापि सुगमता से बोध कराने के लिए उनका सात विभागों में समावेश कर लिया जाता है।
नैगमनय की मान्यतानुसार पदार्थ सामान्य और विशेष उभय रूप है। वह न केवल सामान्य रूप है और न केवल विशेष रूप ही है । अत: वह एक नहीं अपितु अनेक प्रकारों द्वारा अर्थ का बोध कराता है। अतएव उस नय की दृष्टि से विशेष रूप भेद को प्रधान मानकर जितने भी अनुपयुक्त व्यक्ति हैं, उतने ही आगमद्रव्य - आवश्यक हैं। वह संग्रहनय की तरह एक ही द्रव्य - आवश्यक नहीं मानता।
संग्रहनय द्वारा गृहीत पदार्थों का विधिपूर्वक विभाग जिस अभिप्राय से किया जाता है, उस अभिप्राय को व्यवहारनय कहते हैं । व्यवहारनय में लौकिक प्रवृत्ति——व्यवहार की प्रधानता होती है, जिससे वह लोकव्यवहारोपयोगी पदार्थों को स्वीकार करता है, अन्य को नहीं । लोकव्यवहार में जल आदि लाने के लिए घट आदि 'विशेष' उपकारी दिखते हैं अतः उस विशेष के अतिरिक्त अन्य कोई घटत्व आदि सामान्य नहीं है । अतएव व्यवहारनय विशेष को वस्तु रूप से स्वीकार करता है, सामान्य को नहीं। जिससे विशेष— भेद की मुख्यता से नैगमनय के संदृश ही जितने भी अनुपयुक्त व्यक्ति हों, उतने ही आगमद्रव्य - आवश्यक हैं।
इस प्रकार प्ररूपणा में समानता होने से सूत्रकार ने क्रमप्राप्त संग्रहनय को छोड़कर ग्रन्थलाघव की दृष्टि से व्यवहारनय का उपन्यास संग्रहनय से पूर्व और नैगमनय के अनन्तर किया है।
समस्त भुवनत्रयवर्ती वस्तुसमूह का सामान्यमुखेन संग्रह करने वाले, जानने वाले संग्रहनय की अपेक्षा क अथवा अनेक जितनी भी अनुपयुक्त आत्मायें हैं, वे सब आगम से एक द्रव्य - आवश्यक । क्योंकि संग्रहनय मात्र सामान्य को ही ग्रहण करता है, विशेषों को नहीं और विशेषों को स्वीकार न करने में उसका मन्तव्य यह है कि वे