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अनुयोगद्वारसूत्र
ज्ञान की पंचप्रकारता का कारण- ज्ञान के पांच प्रकार—भेद अर्थापेक्षया तीर्थंकरों ने और सूत्र की अपेक्षा गणधरों ने प्ररूपित किये हैं। यह संकेत 'पण्णत्तं-प्रज्ञप्तं' शब्द द्वारा किया गया है। अथवा 'पण्णत्तं' शब्द की संस्कृतछाया प्राज्ञाप्तं भी होने से यह अर्थ हुआ कि ज्ञान की पंचप्रकारता का बोध गणधरों ने प्राज्ञों तीर्थंकर भगवन्तों से आप्त—प्राप्त किया है। अथवा 'पण्णत्तं' पद की संस्कृतछाया प्राज्ञात्तं भी होती है। अतएव इस पक्ष में प्राज्ञोंगणधरों द्वारा आत्तं तीर्थंकरों से ग्रहण किया है, यह अर्थ हुआ। अथवा प्रज्ञाप्तं' यह संस्कृत छाया होने पर यह अर्थ हुआ कि भव्य जीवों ने स्वप्रज्ञा-बुद्धि से ज्ञान की पंचप्रकारता का बोध आप्तं—प्राप्त किया है।
सारांश यह कि सूत्रकार ने 'पण्णत्तं' शब्द प्रयोग द्वारा अपनी लघुता प्रकट करते हुए यह स्पष्ट किया है कि स्वबुद्धि या कल्पना से यह कथन नहीं करता हूँ, प्रत्युत तीर्थंकर भगवन्तों द्वारा निरूपित आशय को ही यहां स्पष्ट कर रहा हूँ।
ज्ञान के पांच भेदों के लक्षण- क्रमशः इस प्रकार हैं
आभिनिबोधिकज्ञान- योग्य देश में अवस्थित वस्तु को मन और इन्द्रियों की सहायता से जानने वाले बोध ज्ञान को आभिनिबोधिकज्ञान कहते हैं। यह अर्थ अभि-नि-बोध इन शब्दों से प्रकट होता है। इस आभिनिबोधिकज्ञान का अपर नाम मतिज्ञान भी है।
यहां ज्ञान शब्द सामान्य ज्ञान का तथा अभिनिबोध शब्द इन्द्रिय और मन से उत्पन्न होने वाले विशिष्ट ज्ञान का बोधक है। अतः आभिनिबोधिकं च तज्ज्ञानं च आभिनिबोधिकज्ञानं' इस तरह इन दोनों सामान्य विशेष—ज्ञानों में समानाधिकरणता है।
श्रुतज्ञान- बोले गये शब्द द्वारा अर्थग्रहण रूप उपलब्धिविशेष को श्रुतज्ञान कहते हैं। श्रुत अर्थात् शब्द। कारण में कार्य का उपचार करने से शब्द को भी श्रुतज्ञान कहते हैं। क्योंकि शब्द श्रोता को अभिलषित अर्थ का ज्ञान कराने में कारण है। यह ज्ञान भी मन और इन्द्रियों के निमित्त से उत्पन्न होता है, फिर भी इसकी उत्पत्ति में इन्द्रियों की अपेक्षा मन की मुख्यता होने से इसे मन का विषय माना गया है।
___ अवधिज्ञान- 'अवधानमवधिः इन्द्रियाद्यनपेक्षमात्मनः साक्षादर्थग्रहणम्, अवधिरेव ज्ञानमवधिज्ञानम्'अर्थात् इन्द्रियों और मन की सहायता के बिना केवल आत्मा द्वारा होने वाले अर्थग्रहण को अवधि कहते हैं और अवधिरूप जो ज्ञान वह अवधिज्ञान कहलाता है। अथवा अवधि शब्द का अर्थ मर्यादा है और रूपी पदार्थों को प्रत्यक्ष करना अरूपी को नहीं, यही इसकी मर्यादा-अवधि है। अतएव जो ज्ञान मर्यादा सहित-रूपी पदार्थों को जानता है, उसे अवधिज्ञान कहते हैं।
मनःपर्यवज्ञान- मनः-परि-अव इन तीन शब्दों से निष्पन्न 'मनःपर्यव' शब्द है। संज्ञी जीवों द्वारा काययोग से गृहीत और मन रूप से परिणमित मनोवर्गणा के पुद्गलों को मन कहते हैं। परि' का अर्थ है सर्व प्रकार से और
—आव. नियुक्ति, गाथा ६२
१. अत्थं भासइ अरहा सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं । २. 'पण्णत्तंति' प्रज्ञप्तमर्थतस्तीर्थंकरैः सूत्रतो गणधरैः प्ररूपितमित्यर्थः ।
अनेन सूत्रकृता आत्मनः स्वमनीषिकापरिहता भवति । ३. श्रुतमनिन्द्रियस्य ।
-अनु. सूत्रवृत्ति, पृष्ठ १
-तत्त्वार्थसूत्र २/२२