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अनुयोगद्वारसूत्र
मंगलाचरण
१ - नाणं पंचविहं पण्णत्तं । तं जहा— आभिणिबोहियणाणं ९. सुयणाणं २. ओहिणाणं. ३. मणपज्जवणाणं ४. केवलणाणं ५ ।
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[१] ज्ञान के पांच प्रकार ( भेद) कहे हैं। वे इस प्रकार — १. आभिनिबोधिकज्ञान, २. श्रुतज्ञान, ३ . अवधिज्ञान, ४. मनः पर्यवज्ञान, ५. केवलज्ञान ।
विवेचन — यह मंगलाचरणात्मक सूत्र है। शास्त्र के स्वयं मंगलरूप होने पर भी सूत्रकार ने शिष्ट पुरुषों की आचार-व्यवहार-परम्परा का परिपालन करने के लिए, शास्त्र की निर्विघ्न परिसमाप्ति के लिए, शिष्यों को शास्त्र के विषयभूत अर्थज्ञान की प्राप्ति की दृढ़ प्रतीति कराने के लिए शास्त्र की आदि में मंगलसूत्र का निर्देश किया है।
ज्ञान की मंगलरूपता कैसे ? सर्व ज्ञेय पदार्थों का ज्ञाता, विघ्नों का उपशमक, कर्म की निर्जरा का हेतु, निज - आनन्द का प्रदाता और आत्मगुणों का बोधक होने से ज्ञान मंगलरूप है । इसीलिए सूत्रकार ने ज्ञान की मंगलरूपता का बोध कराने के लिए ज्ञान के वर्णन से शास्त्र को प्रारम्भ किया है।
ज्ञान शब्द की व्युत्पत्ति— भावसाधन, करणसाधन, अधिकरणसाधन और कर्तृसाधन इन चार प्रकारों से ज्ञान शब्द की व्युत्पत्ति संभव है---
'ज्ञाति: ज्ञानम्'– अर्थात् जानना ज्ञान है। यह भावसाधन ज्ञान शब्द की व्युत्पत्ति है। अर्थात् जानने रूप क्रिया को ज्ञान कहते हैं । 'ज्ञायते अनेन इति ज्ञानम्' यह ज्ञान शब्द की करणसाधन व्युत्पत्ति है, अर्थात् आत्मा जिसके द्वारा पदार्थों को जानता है, वह ज्ञान है । इस व्युत्पत्ति द्वारा ज्ञानावरणकर्म का क्षय अथवा क्षयोपशम लक्षित होता है । क्योंकि इनके होने पर आत्मा में ज्ञान का प्रादुर्भाव होता है। इसलिए ज्ञानावरणकर्म का क्षय और क्षयोपशम ज्ञान रूप होने कारण अभेद सम्बन्ध से ज्ञानरूप ही है, जो पदार्थों को जानने में साधकतम है। 'ज्ञायते अस्मिन्निति ज्ञानमात्मा' पदार्थ जिसमें जाने जायें वह ज्ञान है—यह अधिकरणमूलक व्युत्पत्ति है। इसके द्वारा आत्मा ज्ञान रूप प्रतीत होता है। यहाँ परिणाम (ज्ञान) और परिणामी (आत्मा) का अभेद होने के कारण आत्मा को ज्ञान रूप मान लिया गया है। क्योंकि ज्ञानावरणकर्म के क्षय अथवा क्षयोपशम से विशिष्ट आत्मा का परिणाम ज्ञान है और आत्मा उस परिणाम वाला है। अथवा ज्ञान गुण है और आत्मा उस गुण का आधार होने से गुणवान् गुणी है । 'जानातीति ज्ञानम्' इस कर्तृसाधन व्युत्पत्ति से यह अर्थ लभ्य है कि आत्मा जानने की क्रिया का कर्त्ता है। इसलिए क्रिया और कर्त्ता में अभेदोपचार होने से ज्ञान का 'आत्मा' यह व्यपदेश होता है।
उक्त समग्र कथन का सारांश यह हुआ कि जिसके द्वारा वस्तुओं का स्वरूप जाना जाये, अथवा जो निज स्वरूप का प्रकाशक है, अथवा जो ज्ञानावरणकर्म के क्षय या क्षयोपशम के निमित्त से उत्पन्न होता है, वह ज्ञान है।