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अनुयोगद्वारसूत्र
भाव-आय
५७५. से किं तं भावाए ? भावाए दुविहे पण्णत्ते । तं जहा—आगमतो य नोआगमतो य । [५७५ प्र.] भगवन् ! भाव-आय का क्या स्वरूप है ? [५७५ उ.] आयुष्मन्! भाव-आय के दो प्रकार हैं । यथा—१. आगम से, २. नोआगम से। ५७६. से किं तं आगमतो भावाए ? आगमतो भावाए जाणए उवउत्ते । से तं आगमतो भावाए । [५७६ प्र.] भगवन् ! आगमभाव-आय का क्या स्वरूप है ? [५७६ उ.] आयुष्मन्! आयपद के ज्ञाता और साथ ही उसके उपयोग से युक्त जीव आगमभाव-आय है। ५७७. से किं तं नोआगमतो भावाए ? नोआगमतो भावाए दुविहे पण्णत्ते । तं जहा—पसत्थे य अप्पसत्थे य । [५७७ प्र.] भगवन् ! नोआगमभाव-आय का क्या स्वरूप है ? [५७७ उ.] आयुष्मन् ! नोआगमभाव-आय के दो प्रकार हैं, यथा—१. प्रशस्त और अप्रशस्त। ५७८. से किं तं पसत्थे ? पसत्थे तिविहे पण्णत्ते । तं जहा—णाणाए दंसणाए चरित्ताए । से तं पसत्थे । [५७८ प्र.] भगवन् ! प्रशस्त नोआगमभाव-आय किसे कहते हैं ?
[५७८ उ.] आयुष्मन्! प्रशस्त नोआगमभाव-आय के तीन प्रकार हैं । यथा—१. ज्ञान-आय, २. दर्शन-आय, ३. चारित्र-आय।
५७९. से किं तं अपसत्थे ?
अपसत्थे चउव्विहे पण्णत्ते । तं जहा–कोहाए माणाए मायाए लोभाए । से तं अपसत्थे । से तं णोआगमतो भावाए । से तं भावाए । से तं आए ।
[५७९ प्र.] भगवन् ! अप्रशस्तनोआगमभाव-आय किसे कहते हैं ?
[५७९ उ.] आयुष्मन् ! अप्रशस्तनोआगमभाव-आय के चार प्रकार हैं। यथा—१. क्रोध-आय, २. मानआय,३. माया-आय और ४. लोभ-आय। यही अप्रशस्तभाव-आय है। इस प्रकार से नोआगमभाव-आय के भावआय एवं आय की वक्तव्यता का वर्णन जानना चाहिए।
विवेचन— भाव-आय का वर्णन सुगम है। विशेष इतना है कि ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आय मोक्षप्राप्ति का उपाय होने के साथ आत्मिक गुण रूप होने से प्रशस्त है और क्रोधादि की आय अप्रशस्त इसलिए है कि वे आत्मा की वैभाविक परिणति एवं संसार के कारण हैं। इनकी प्राप्ति से जीव संसार में परिभ्रमण करता है और संसार में परिभ्रमण करना जीव के लिए अनिष्ट है।