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अनुयोगद्वारसूत्र जहण्णयं परित्ताणतयं जहण्णयं असंखेजासंखेजयं जहण्णयअसंखेजासंखेजयमेत्ताणं रासीणं अण्णमण्णब्भासो पडिपुण्णो जहण्णयं परित्ताणतयं होति, अहवा उक्कोसए असंखेजासंखेन्जए रूवं पक्खित्तं जहण्णयं परित्ताणतयं होइ । तेण परं अजहण्णमणुक्कोसयाइं ठाणाई जाव उक्कोसयं परित्ताणतयं ण पावइ ।
[५१५ प्र.] भगवन् ! जघन्य परीतानन्त का कितना प्रमाण है ?
[५१५ उ.] आयुष्मन् ! जघन्य असंख्यातासंख्यात राशि को उसी जघन्य असंख्यातासंख्यात राशि से परस्पर अभ्यास रूप में गुणित करने से प्राप्त परिपूर्ण संख्या जघन्य परीतानन्त का प्रमाण है। अथवा उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात में एक रूप का प्रक्षेप करने से भी जघन्य परीतानन्त का प्रमाण होता है। तत्पश्चात् अजघन्य-अनुत्कृष्ट (मध्यम) परीतानन्त के स्थान होते हैं और वे भी उत्कृष्ट परीतानन्त का स्थान प्राप्त न होने के पूर्व तक होते हैं।
५१६. उक्कोसयं परित्ताणतयं केत्तियं होइ ?
जहण्णयं परित्ताणतयं जहण्णयपरित्ताणंतयमेत्ताणं रासीणं अण्णमण्णब्भासो रूवूणो उक्कोसयं परित्ताणतयं होइ, अहवा जहण्णयं जुत्ताणतयं रूवूणं उक्कोसयं परित्ताणतयं होइ ।
[५१६ प्र.] भगवन् ! उत्कृष्ट परीतानन्त कितने प्रमाण में होता है ?
[५१६ उ.] आयुष्मन्! जघन्य परीतानन्त की राशि को उसी जघन्य परीतानन्त राशि से परस्पर अभ्यास रूप गुणित करके उसमें से एक रूप (अंक) न्यून करने से उत्कृष्ट परीतानन्त का प्रमाण होता है। अथवा जघन्य युक्तानन्त की संख्या में से एक न्यून करने से भी उत्कृष्ट परीतानन्त की संख्या बनती है।
विवेचन– प्रस्तुत दो सूत्रों में अनन्त संख्या के प्रथम भेद परीतानन्त के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट इन तीनों प्रकारों का स्वरूप बताया है। जिनका आशय सुगम है। युक्तानन्त निरूपण
५१७. जहण्णयं जुत्ताणतयं केत्तियं होति ?
जहण्णयं परित्ताणंतयं जहण्णयपरित्ताणतयमेत्ताणं रासीणं अण्णमण्णब्भासो पडिपुण्णो जहण्णयं जुत्ताणतयं होइ, अहवा उक्कोसए परित्ताणंतए रूवं पक्खित्तं जहन्नयं जुत्ताणतयं होइ, अभवसिद्धिया वि तेत्तिया चेव, तेण परं अजहण्णमणुक्कोसयाई ठाणाइं जाव उक्कोसयं जुत्ताणतयं ण पावति । __ [५१७ प्र.] भगवन् ! जघन्य युक्तानन्त कितने प्रमाण में होता है ?
[५१७ उ.] आयुष्मन् ! जघन्य परीतानन्त मात्र राशि का उसी राशि से अभ्यास करने से प्रतिपूर्ण संख्या जघन्य युक्तानन्त है। अर्थात् जघन्य परीतानन्त जितनी सर्षप संख्या का परस्पर अभ्यास रूप गुणा करने से प्राप्त परिपूर्ण संख्या जघन्य युक्तानन्त है। अथवा उत्कृष्ट परीतानन्त में एक रूप (अंक) प्रक्षिप्त करने से जघन्य युक्तानन्त होता है। अभवसिद्धिक (अभव्य) जीव भी इतने ही (जघन्य युक्तानन्त जितने) होते हैं। उसके पश्चात् अजघन्योत्कृष्ट (मध्यम) युक्तानन्त के स्थान हैं और वे उत्कृष्ट युक्तानन्त के स्थान के पूर्व तक हैं।