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प्रमाणाधिकारनिरूपण
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उदधाविवि सर्वसिन्धवः समुदीर्णास्त्वयि नाथ ! दृष्टयः ।
न च तासु भवान् प्रदृश्यते, प्रविभक्तासु सरित्स्विवोदधिः ॥ हे नाथ! जैसे सब नदियां समुद्र में एकत्र हो जाती हैं, इसी प्रकार आपके मत में सब नय एक साथ मिल जाते हैं। परन्तु आपके मत का किसी एक नय में समावेश नहीं हो सकता है। जैसे समुद्र किसी एक नदी में नहीं समाता, उसी प्रकार सभी वादियों का सिद्धान्त तो जैनमत हैं लेकिन संपूर्ण जिनमत किसी वादी का मत नहीं है।
नयप्रमाण के उक्त तीनों दृष्टान्तों से यह स्पष्ट है कि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव सभी नयप्रमाण के विषय होते हैं। जैसे प्रस्थकदृष्टान्त में काल की मुख्यता है । वसतिदृष्टान्त में क्षेत्र का और प्रदेशदृष्टान्त में द्रव्य, भाव का विचार किया गया है।
ये सभी नय ज्ञान रूप हैं और ज्ञान आत्मा का गुण है। इसलिए इन नयों का यद्यपि ज्ञानगुण में अन्तर्भाव हो जाता है, फिर भी प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से इन्हें भिन्न इस कारण कहा गया है कि प्रथम तो ये वस्तु के एक अंश का मुख्य रूप से कथन करने के कारण प्रमाणांश रूप हैं। दूसरे बहु विचार के विषय हैं। जिनागम में स्थान-स्थान पर इनका उपयोग हआ है। प्रस्थक. वसति और प्रदेश दष्टान्तों से यहां जो नय का स्वरूप निरूपण किया है वह तो केवल उपलक्षण मात्र है। इसी तरह इन नयों से जीवादि पदार्थों के स्वरूप का भी वर्णन किया जा सकता है।
अब क्रमप्राप्त संख्याप्रमाण का निरूपण करते हैं। संख्याप्रमाण निरूपण
४७७. से किं तं संखप्पमाणे ?
संखप्पमाणे अट्ठविहे पण्णत्ते । तं जहा—नामसंखा ठवणसंखा दव्वसंखां ओवम्मसंखा परिमाणसंखा जाणणासंखा गणणासंखा भावसंखा ।
[४७७ प्र.] भगवन् ! संख्याप्रमाण का क्या स्वरूप है ?
[४७७ उ.] आयुष्मन् ! संख्याप्रमाण आठ प्रकार का कहा है। यथा—१. नामसंख्या, २. स्थापनासंख्या, ३. द्रव्यसंख्या, ४. औपम्यसंख्या, ५. परिमाणसंख्या, ६. ज्ञानसंख्या, ७. गणनासंख्या, ८. भावसंख्या।
विवेचन— सूत्र में भेदों के द्वारा संख्याप्रमाण का वर्णन प्रारम्भ किया है।
जिसके द्वारा संख्या-गणना की जाये उसे अथवा गणना को संख्या कहते हैं। संख्या रूप प्रमाण संख्याप्रमाण कहलाता है। प्राकृत भाषा में 'शषोः सः' सूत्र से शंख के 'श' के स्थान पर 'स' आदेश हो जाता है। अत: यहां 'संखा' शब्द से संख्या और शंख दोनों का ही ग्रहण समझना चाहिए, जैसे 'गो' शब्द से पशु, भूमि इत्यादि का। संख्या और शंख इन दोनों का संख शब्द से ग्रहण होने के कारण नाम-स्थापना आदि के विचार में जहां संख्या अथवा शंख शब्द घटित होता हो वहां-वहां उस-उस शब्द की योजना कर लेना चाहिए। नाम-स्थापना संख्या
४७८. से किं तं नामसंखा ? नामसंखा जस्सणं जीवस्स वा अजीवस्स वा जीवाण वा अजीवाण वा तदुभयस्स वा