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प्रमाणाधिकारनिरूपण
विवेचन – सूत्र
में वसति निवास के दृष्टान्त द्वारा नय-कथनशैली का निरूपण किया है।
मन के अनेक भेद हैं, अतः उसके अनुसार दिये गये उत्तर उत्तरोत्तर विशुद्धतर नैगमनय की दृष्टि से हैं। क्योंकि संकल्पमात्रग्राही होने से जब नैगमनय अपेक्षा दृष्टि से विशेषोन्मुखी होता है तब चरम विशेष के पूर्व तक विशुद्ध से विशुद्धतर होता जाता है और वे सभी विशुद्धतर नैगमनय के विषय हैं। इसलिए पूर्व-पूर्वापेक्षया नैगमनय के मत से वसते हुए को वसता हुआ माना जाता है। यदि वह अन्यत्र भी चला गया हो तब भी जहां निवास करेगा, वहीं उसको वसता हुआ माना जायेगा ।
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इसी प्रकार का व्यवहारनय का भी मंतव्य है । क्योंकि जहां जिसका निवासस्थान है, वह उसी स्थान में वसता हुआ माना जाता है तथा जहां पर रहे, वही उसका निवासस्थान होता है। जैसे— पाटलिपुत्र का रहने वाला यदि कहीं अन्यत्र जाये तब भी कहा जाता कि पाटलिपुत्रवासी अमुक व्यक्ति यहां आया हुआ है और पाटलिपुत्र में 'कहेंगे'– अब वह यहां नहीं है, अन्यत्र बस गया है। अर्थात् विशुद्धतर नैगमनय और व्यवहारनय के मत से 'वसते हुए को वसता हुआ मानते हैं। इसी का संकेत करने के लिए 'एवमेव ववहारस्स वि' पद दिया है।
संग्रह की मान्यता है कि 'वसति' शब्द का प्रयोग गर्भगृह आदि में रहने के अर्थ में नहीं हो सकता है। क्योंकि वसति का अर्थ निवास है और यह निवास रूप अर्थ संस्तारक पर आरूढ होने पर ही घटित होता है। अतः जब कोई संस्तारक- शय्या पर शयन करे तभी चलने आदि क्रिया से रहित होकर शयन करते समय ही उसे वसता हुआ माना जा सकता है। संग्रहनय सामान्यवादी है, इसलिए इसके मत से सभी शैयायें एक हैं, चाहे वे कहीं भी हों ।
ऋजुसूत्रनय संग्रहनय की अपेक्षा भी विशुद्ध है। ऋजुसूत्रनय का मंतव्य है संस्तारक पर आरूढ हो जाने मात्र से वसति शब्द का अर्थ घटित नहीं होता है, किन्तु संस्तारक के जितने आकाश प्रदेश वर्तमान में अवगाहन किये गये हैं, उन्हीं पर वसता हुआ मानना चाहिए।
शब्द, समभिरूढ और एवंभूत इन तीनों नयों की पदार्थ के निज स्वरूप में रहने के विषय में यह दृष्टि है कि आकाशप्रदेश पर द्रव्य होने से उनमें रहना वसति शब्द का अर्थ नहीं हो सकता, क्योंकि कोई भी द्रव्य पर द्रव्य में नहीं रहता है । इसलिए प्रत्येक द्रव्य अपने-अपने स्वरूप में निवास करता है।
अब प्रदेशदृष्टान्त द्वारा नयों का निरूपण करते हैं ।
प्रदेशदृष्टान्त द्वारा नयनिरूपण
४७६. से किं तं पदेसदिट्टंतेणं ?
पदेसदिट्टंतेणं णेगमो भणति छण्हं पदेसो, तं जहा धम्मपदेसो अधम्मपदेसो आगासपदेसो जीवपदेसो खंधपदेसो देसपदेसो ।
एवं वयंतं णेगमं संगहो भाइ जं भणसि छण्हं पदेसो तण्ण भवइ, कम्हा ? जम्हा जो सो देसपदेसो सो तस्सेव दव्वस्स, जहा को दिट्टंतो ? दासेण मे खरो कीओ दासो वि मे खरो वि मे, तं मा भणाहि— छण्हं पएसो, भणाहि पंचन्हं पएसो, तं जहा धम्मपएसो अहम्मपएसो आगासपदेसो जीवपएसो खंधपदेसो ।