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यावत् आयतसंस्थानगुणप्रमाण । यह संस्थानगुणप्रमाण का स्वरूप है। इस प्रकार से अजीवगुणप्रमाण का स्वरूप जानना चाहिए ।
विवेचन — यहां अजीवगुणप्रमाण का कथन किया है। प्रमाण शब्द की व्युत्पत्ति भाव, करण और कर्म इन तीन साधनों में होती हैं, यह पहले स्पष्ट किया जा चुका है। भावसाधन पक्ष में गुणों को जानने रूप प्रमिति प्रमाण है। यद्यपि गुण स्वयं प्रमाणभूत नहीं होते हैं किन्तु जानने रूप क्रिया गुणों में होती है, इसलिए अभेदोपचार से गुणों को भी प्रमाण मान लिया जाता है। करणसाधन पक्ष में गुणों के द्वारा द्रव्य जाना जाता है, इसलिए गुण प्रमाणभूत हो जाते हैं। कर्मसाधन पक्ष में गुण गुणरूप से जाने जाते हैं, इसलिए गुण प्रमाण रूप हैं।
अनुयोगद्वारसूत्र
यहां जिन गुणों को प्रमाण रूप से प्रस्तुत किया है, वे मूर्त अजीव द्रव्य पुद्गल के हैं। ये सभी पुद्गलद्रव्य के असाधारण स्वरूप के बोधक हैं। अन्य द्रव्यों में नहीं होते हैं। जिस द्रव्य में रूप होता है, उसी में संस्थान - आकार होता है। आकार के माध्यम से वह दृश्य होता है। इसीलिए परिमंडल आदि संस्थानों को भी गुणप्रमाण के रूप में
माना 1
संस्थानों के नामोल्लेख में 'यावत्' पद से परिमंडल और आयत संस्थान के साथ वृत्त, त्र्यस और चतुरस्र संस्थान को ग्रहण किया है। वलय (चूड़ी) के आकार के संस्थान को परिमंडलसंस्थान कहते हैं। लोहगोलक (गोली) के आकार को वृत्तसंस्थान, सिंघाड़े जैसे आकार को त्र्यस (त्रिकोण) संस्थान, समचौरस (चौकोर ) आकार को चतुरस्रसंस्थान और लम्बे आकार को आयतसंस्थान कहते हैं।
स्थानांगसूत्र में संस्थान सात कहे गए हैं - १. दीर्घ, २. ह्रस्व, ३. वृत्त ( गेंद के समान गोल), ४. त्रिकोण, ५. चतुष्कोण, ६. प्रथुल - विस्तीर्ण और ७. परिमंडल - वलय की भांति गोल ।
ये सभी वर्णादि गुण अजीव पदार्थ के हैं। इसलिए इनको अजीवगुणप्रमाण में ग्रहण किया है।
जीवगुणप्रमाणनिरूपण
१.
४३५. से किं तं जीवगुणप्पमाणे ?
जीवगुणप्पमाणे तिविहे पण्णत्ते । तं जहा—णाणगुणप्पमाणे दंसणगुणप्पमाणे चरित्
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[४३५ प्र.] भगवन्! जीवगुणप्रमाण का क्या स्वरूप है ?
[४३५ उ.] आयुष्मन् ! जीवगुणप्रमाण तीन प्रकार का प्रतिपादन किया गया है। वह इस प्रकार – ज्ञानगुणप्रमाण, दर्शनगुणप्रमाण और चारित्रगुणप्रमाण ।
विवेचन — यहां जीव के मूलभूत गुणों का उल्लेख करके जीवगुणप्रमाण के तीन भेद बताये हैं ।
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४३६. से किं तं णाणगुणप्पमाणे ? णाणगुणप्पमाणें चउव्विहे पण्णत्ते । तं पच्चक्खे अणुमाणे ओवम्मे आगमे ।
[४३६ प्र.] भगवन्! ज्ञानगुणप्रमाण का क्या स्वरूप है ?
स्थानांगसूत्र, स्थान ७।