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________________ प्रमाणाधिकारनिरूपण णिप्फण्णे । से तं कालप्पमाणे । [४२६-४] इनके बद्ध और मुक्त तैजस-कार्मण शरीरों का प्रमाण इन्हीं के (बद्ध-मुक्त) वैक्रियशरीरों जितना जानना चाहिए। यह सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम का स्वरूप है। इसके साथ ही क्षेत्रपल्योपम तथा पल्योपम का स्वरूप भी निरूपित हो चुका। साथ ही विभागनिष्पन्न कालप्रमाण एवं समग्र कालप्रमाण का कथन भी पूर्ण हुआ। विवेचन- सूत्र में वैमानिक देवों के बद्ध-मुक्त पंच शरीरों की प्ररूपणा करके कालप्रमाण का उपसंहार किया है। वैमानिकों के बद्ध-मुक्त औदारिकशरीरों के लिए नैरयिकों के शरीर की संख्या का निर्देश किया है। इसका तात्पर्य यह है कि नैरयिकों की तरह वैमानिक देवों के भी बद्धऔदारिकशरीर नहीं होते। मुक्तऔदारिकशरीर पूर्व के अनन्त जन्मों की अपेक्षा अनन्त होते हैं। ___ बद्धवैक्रियशरीर असंख्यात हैं। काल की अपेक्षा उनका अपहरण किये जाने पर असंख्यात उत्सर्पिणीअवसर्पिणी कालों के समयों जितने होंगे। क्षेत्र की अपेक्षा असंख्यात का प्रमाण बताने के लिए कहा है कि प्रतर के असंख्यातवें भाग में वर्तमान असंख्यात श्रेणियों की जितनी प्रदेशराशि होती हैं, उतने हैं। इसी बात को और अधिक स्पष्ट करने के लिए कहा है कि इन श्रेणियों की विष्कंभसूची का प्रमाण तृतीय वर्गमूल से गुणित द्वितीय वर्गमूलप्रमाण अथवा अंगुल के तृतीय वर्गमूल का घन करने पर प्राप्त संख्याप्रमाण जानना चाहिए। जिसका असत्कल्पना से स्पष्टीकरण इस प्रकार है मान लें कि असंख्यात श्रेणियां २५६ हैं। इनका प्रथम वर्गमूल १६, द्वितीय वर्गमूल ४ और तृतीय वर्गमूल २ हुआ। इस द्वितीय वर्गमूल ४ और तृतीय वर्गमूल २ से गुणा करने पर (४४२ =८) आठ हुए। इन आठ को हम असंख्यात श्रेणियों की विष्कंभसूची मान लें। इन असंख्यात श्रेणियों की जितनी प्रदेशराशि होगी उतने वैमानिक देवों के क्षेत्रों की अपेक्षा बद्धवैक्रियशरीर हैं। अथवा अंगुल का प्रमाण २५६ है। इसका तृतीय वर्गमूल २ हुआ। उसका घन करने पर (२४२४२ =८) हुए। इस आठ को हम कल्पना से असंख्यात श्रेणियों की विष्कंभसूची मान लें। इस प्रकार दोनों प्रकार के कथन में अर्थ का कोई भेद नहीं है। मुक्तवैक्रियशरीरों का परिमाण सामान्य मुक्तऔदारिकशरीरों जितना अनन्त जानना चाहिए। वैमानिक देवों के बद्ध और मुक्त आहारकशरीरों का प्रमाण नारकों जैसा जानने के संकेत का यह आशय है कि जैसे नारकों के बद्धआहारकशरीर नहीं होते, इसी प्रकार वैमानिक देवों के भी नहीं होते हैं। मुक्तआहारकशरीर पूर्वभवों की अपेक्षा होते हैं। इनका प्रमाण नारकों के मुक्तआहारकशरीरों जितना अनन्त है। ___ बद्ध-तैजस-कार्मण शरीरों का प्रमाण इन्हीं के बद्धवैक्रियशरीरों के समान असंख्यात और मुक्त-तैजसकार्मण शरीर मुक्त वैक्रियशरीरों के समान अनन्त हैं। इस प्रकार से चौबीस दंडकवर्ती जीवों के शरीरों की प्ररूपणा जानना चाहिए। इसके पश्चात् ‘से तं' आदि पदों द्वारा कालप्रमाण के वर्णन के पूर्ण होने की सूचना दी गई है। अब क्रमप्राप्त भावप्रमाण का वर्णन प्रारंभ करते हैं।
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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