________________
३३२
अनुयोगद्वारसूत्र गो०! दुविहा पण्णत्ता । तं जहा—बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य । तत्थ णं जे ते बद्धेल्लया ते णं सिय संखेजा सिय असंखेजा, जहण्णपदे संखेजा संखेजाओ कोडीओ, एगुणतीसं ठाणाइं तिजमलपयस्स उवरि चउजमलपयस्स हेट्ठा, अहवणं छट्ठो वग्गो पंचमवग्गपडुप्पण्णो, अहवणं छण्णउतिछे यणगदाइरासी, उक्कोसपदे असंखेजा, असंखेजाहिं उस्सप्पिणि-ओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ, खेत्ततो उक्कोसपए रूवपक्खित्तेहिं मणूसहिं सेढी अवहीरंति, असंखेजाहिं उस्सप्पिणी-ओसप्प्णिीहिं कालओ, खेत्तओ अंगुलपढमवग्गमूलं ततियवग्गमूलपडुप्पण्णं । मुक्केल्लया जहा ओहिया ओरालिया। __ [४२३-१ प्र.] भदन्त ! मनुष्यों के औदारिकशरीर कितने कहे गये हैं ?
। [४२३-१ उ.] गौतम! वे दो प्रकार के कहे गये हैं—बद्ध और मुक्त। उनमें से बद्ध तो स्यात् संख्यात और स्यात् असंख्यात होते हैं। जघन्य पद में संख्यात कोटाकोटि होते हैं अर्थात् उनतीस अंकप्रमाण होते हैं। ये उनतीस अंक तीन यमल पद के ऊपर तथा चार यमल पद से नीचे हैं, अथवा पंचमवर्ग से गुणित छठे वर्गप्रमाण होते हैं, अथवा छियानवे (९६) छेदनकदायी राशि जितनी संख्या प्रमाण हैं। उत्कृष्ट पद में वे शरीर असंख्यात हैं। जो कालतः असंख्यात उत्सर्पिणियों-अवसर्पिणियों द्वारा अपहृत होते हैं और क्षेत्र की अपेक्षा एक रूप प्रक्षिप्त किये जाने पर मनुष्यों से श्रेणी अपहत होती है। कालतः असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी कालों से अपहार होता है और क्षेत्रतः तीसरे वर्गमूल से गुणित अंगुल के प्रथम वर्गमूल प्रमाण होते हैं। उनके मुक्तऔदारिकशरीर औधिक मुक्तऔदारिकशरीरों के समान जानना चाहिए।
(२) मणूसाणं भंते ! केवतिया वेउव्वियसरीरा पण्णत्ता ?
गो० ! दुविहा प०। तं०-बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य । तत्थ णं जे ते बद्धेल्लया ते णं संखेजा समए २ अवहीरमाणा २ संखेज्जेणं कालेणं अवहीरंति, नो चेव णं अवहिया सिया । मुक्केल्लया जहा ओहिया ओरालिया ।
[४२३-२ प्र.] भगवन् ! मनुष्यों के वैक्रियशरीर कितने कहे हैं ?
[४२३-२ उ.] गौतम! वे दो प्रकार के कहे गये हैं—बद्ध और मुक्त। उनमें से बद्ध संख्यात हैं जो समयसमय में अपहत किये जाने पर संख्यात काल में अपहृत होते हैं किन्तु अपहत नहीं किये गये हैं। मुक्तवैक्रियशरीर मुक्त औधिक औदारिकशरीरों के बराबर जानना चाहिए।
(३) मणूसाणं भंते ! केवइया आहारयसरीरा पन्नत्ता ?
गो० ! दुविहा पण्णत्ता । तं जहा—बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य । तत्थ णं जे ते बद्धेल्लया ते णं सिय अस्थि सिय नत्थि, जइ अत्थि जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा उक्कोसेणं सहस्सपुहत्तं । मुक्केल्लया जहा ओहिया ओरालिया ।
[४२३-३ प्र.] भगवन् ! मनुष्यों के आहारकशरीर कितने कहे गये हैं ?
[४२३-३ उ.] गौतम! वे दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा—बद्ध और मुक्त। उनमें से बद्ध तो कदाचित् होते हैं और कदाचित् नहीं भी होते हैं। जब होते हैं तब जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट सहस्रपृथक्त्व होते हैं।