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अनुयोगद्वारसूत्र द्वित:खहा, ६. चक्रवाला, ७. अर्धचक्रवाला।
इन सात भेदों में से प्रस्तुत में ऋजुआयता श्रेणि प्रयोजनीय है। अतएव सूच्यंगुल का अर्थ यह हुआ कि सूची सूई के आकार में दीर्घता की अपेक्षा एक अंगुल लंबी तथा बाहल्य की अपेक्षा एक प्रदेश ऋजुआयता आकाशप्रदेशों की पंक्ति सूच्यंगुल कहलाती है।
यद्यपि सिद्धान्त की दृष्टि से सूच्यंगुलप्रमाण आकाश में असंख्य प्रदेश होते हैं, लेकिन कल्पना से इनका प्रमाण तीन मान लिया जाए और इन तीन प्रदेशों को समान पंक्ति में ००० इस प्रकार स्थापित किया जाए तो इसका आकार सूई के समान एक अंगुल लम्बा होने से इसे सूच्यंगुल कहते हैं।
प्रतरांगुल— प्रतर वर्ग को कहते हैं और किसी राशि को दो बार लिखकर परस्पर गुणा करने पर जो प्रमाण आए वह वर्ग है। जैसे दो की संख्या को दो बार लिखकर उनका परस्पर गुणा करने पर २ x २ = ४ हुए। यह चार की संख्या दो की वर्गराशि हुई। इसीलिए सूत्र में प्रतरांगुल का लक्षण बताया है—'सूयी सूयीए गुणिया पयरंगुले' अर्थात् सूच्यंगुल को सूच्यंगुल से गुणा करने पर जो प्रमाण हो वह प्रतरांगुल है। यद्यपि वह प्रतरांगुल भी असंख्यात प्रदेशात्मक होता है, लेकिन असत्कल्पना से पूर्व में सूच्यंगुल के रूप में स्थापित तीन प्रदेशों को तीन प्रदेशों से गुणा करने पर जो नौ प्रदेश हुए, उन नौ प्रदेशों को प्रतरांगुल के रूप में जानना चाहिए। असत्कल्पना से इसकी स्थापना का प्रारूप होगा- ०००
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सूच्यंगुल और प्रतरांगुल में यह अंतर है कि सूच्यंगुल में दीर्घता तो होती है किन्तु बाहल्य—विष्कंभ एक प्रदेशात्मक ही होता है और प्रतरांगुल में दीर्घता एवं विष्कम्भ–चौड़ाई समान होती है।
घनांगुल— गणितशास्त्र के नियमानुसार तीन संख्याओं का परस्पर गुणा करने को घन कहते हैं। ऐसा करने से उस वस्तु की दीर्घता लम्बाई, विष्कम्भ—चौड़ाई और पिंडत्व—मोटाई का ज्ञान होता है । घनांगुल के द्वारा यही कार्य निष्पन्न किया जाता है । इसीलिए सूत्र में घनांगुल का लक्षण बताया है कि प्रतरांगुल को सूच्यंगुल से गुणा करने पर घनांगुल निष्पन्न होता है—'पयरं सूईए गुणितं घणंगुले।' प्रकारान्तर से इस प्रकार भी कहा जा सकता हैसूच्यंगुल की राशि का परस्पर तीन बार गुणा करने पर प्राप्त राशि—गुणनफल घनांगुल है। ___यद्यपि यह घनांगुल भी असंख्यात प्रदेशात्मक होता है, लेकिन असत्कल्पना से उसे यों समझना चाहिए कि पूर्व में बताये गये नौ प्रदेशात्मक प्रतरांगुल में सूच्यंगुल सूचक तीन का गुणा करने पर प्राप्त सत्ताईस संख्या घनांगुल की बोधक है। इनकी स्थापना पूर्वोक्त नवप्रदेशात्मक प्रतर के नीचे और ऊपर नौ-नौ प्रदेशों को देकर करनी चाहिए।
यह स्थापना आयाम-विष्कम्भ-पिंड (लम्बाई-चौड़ाई-मोटाई) की बोधक है और इन सबमें तुल्यता होती है।
उक्त कथन का सारांश यह हुआ कि सूच्यंगुल द्वारा वस्तु की दीर्घता, प्रतरांगुल द्वारा दीर्घता और विष्कंभ एवं
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ठाणांग पद ७