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वर्णन के प्रसंग में किया जाएगा।
षट्खंडागम, धवला टीका आदि में गणनीय संख्याओं के नामों का उल्लेख इस प्रकार किया गया है—
एक, दस, शत, सहस्र, दस सहस्र, दस शतसहस्र, कोटि, पकोटि, कोटिप्पकोटि, नहुत्त, निन्नहुत्त, अखोभिनी, बिन्दु, अब्बुद, निरब्बुद, अहह, अव्व, अटट, सोगन्धिक उप्पल, कुमुद, पुंडरीक, पदम, कथान, महाकथान, असंख्येय, पणट्टी, बादाल, एकट्टी । क्रम के अनुसार ये सभी संख्यायें उत्तर उत्तर में दस गुनी हैं।
गणिमप्रमाण का प्रयोजन बताने के प्रसंग मे 'भितग- भित्ति' आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है। इनका अर्थ यह है कि प्राचीनकाल में भृत्य, कर्मचारी और पदाति सेना आदि को कुछ-न-कुछ धन — मुद्रायें भी दी जाती थीं । दैनिक मजदूरी नकद दी जाती थी। जिसका संकेत 'वेयण' शब्द से मिलता है। शासनव्यवस्था और व्यापारव्यवसाय का आय-व्यय, हानि-लाभ का तलपट मुद्राओं के रूप में निर्धारित किया जाता था। आर्थिकक्षेत्र के जो सिद्धान्त आज पश्चिम की देन माने जाते हैं, वे सब हमारे देश में प्राचीन समय से चले आ रहे थे, ऐसा ‘आयव्वयनिव्विसंसियाणं' पद से स्पष्ट है।
प्रतिमानप्रमाण
अनुयोगद्वारसूत्र
३२८. से किं तं पडिमाणे ?
डिमाणे जणं पडिमिणिज्जइ । तं जहा — गुंजा कागणी निप्फावो कम्ममासओ मंडलओ सुवणो । पंच गुंजाओ कम्ममासओ, कागण्यपेक्षया चत्तारि कागणीओ कम्ममासओ । तिणि निप्फावा कम्ममासओ, एवं चउक्को कम्ममासओ । बारस कम्ममासया मंडलओ, एवं अडयालीसाए [ कागणीए ] मंडलओ । सोलस कम्ममासया सुवण्णो, एवं चउसट्ठीए [ कागणीए ] सुवण्णो ।
[ ३२८ प्र.] भगवन् ! प्रतिमान (प्रमाण) क्या है ?
[३२८ उ.] आयुष्मन् ! जिसके द्वारा अथवा जिसका प्रतिमान किया जाता है, उसे प्रतिमान कहते हैं । वह इस प्रकार है- १. गुंजा - रत्ती, २. काकणी, ३. निष्पाव, ४. कर्ममाषक, ५. मंडलक, ६. सुवर्ण ।
पांच गुंजाओं—त्तियों का, काकणी की अपेक्षा चार काकणियों का अथवा तीन निष्पाव का एक कर्ममाषक होता है। इस प्रकार कर्ममाषक चार प्रकार से निष्पन्न ( चतुष्क) होता है।
बारह कर्ममाषकों का एक मंडलक होता है। इसी प्रकार अड़तालीस काकणियों के बराबर एक मंडलक
होता है।
१.
सोलह कर्ममाषक अथवा चौसठ काकणियों का एक स्वर्ण (मोहर) होता है ।
३२९. एतेणं पडिमाणप्पमाणेणं किं पओयणं ?
(क) धवला ५/प्र./२२
(ख) ति. पण्णत्ति ४/३०९ - ३११
(ग) तत्त्वार्थराजवार्तिक ३/३८
(घ) त्रिलोकसार २८-५१