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अनुयोगद्वारसूत्र
पारिणामिकभाव जीवत्व और क्षायिकभाव अनन्त ज्ञान-दर्शन आदि हैं।
२. औदयिक-क्षायोपशमिक-पारिणामिकभाव के संयोग से निष्पन्न त्रिकसंयोगी भेद चातुर्गतिक संसारी जीवों में पाया जाता है। क्योंकि उनमें गतियां औदयिक रूप, भावेन्द्रियां क्षायोपशमिक रूप और जीवत्व आदि पारिणामिकभाव रूप हैं।
३. औदयिक-क्षायिक-पारिणामिक के संयोग से निष्पन्न त्रिकसंयोगी भंग भवस्थ केवलियों में पाया जाता है। वह इस प्रकार है—औदयिकभाव मनुष्यगति, क्षायिकभाव केवलज्ञान आदि और पारिणामिकभाव जीवत्व रूप से उनमें है।
४. औदयिक-क्षायिक-क्षायोपशमिक-पारिणामिक के संयोग से निष्पन्न चतु:संयोगी भंग चातुर्गतिक जीवों में पाया जाता है। इनमें गति औदयिकभाव, क्षायिक सम्यक्त्व क्षायिकभाव, भावेन्द्रियां क्षायोपशमिकभाव और जीवत्व पारिणामिकभाव रूप है।
__५. औदयिक-औपशमिक-क्षायोपशमिक-पारिणामिक के संयोग वाला चतुःसंयोगी भंग भी चारों गतियों में पाया जाता है। इसका आशय भी पूर्वोक्त चतुःसंयोगी भंग के अनुरूप है। विशेष इतना है कि क्षायिकभाव के स्थान पर औपशमिकभाव में औपशमिक सम्यक्त्व का ग्रहण करना चाहिए।
६. पंचसंयोगी सान्निपातिकभाव औदयिक आदि पंच भावों का संयोग रूप है और वह क्षायिक सम्यग्दृष्टि उपशमश्रेणी में वर्तमान मनुष्यों में पाया जाता है। वह इस प्रकार मनुष्यगति औदयिकभाव, क्षायिक सम्यक्त्व क्षायिकभाव, औपशमिक चारित्र औपशमिकभाव, भावेन्द्रियां क्षायोपशमिकभाव रूप और जीवत्व पारिणामिकभाव रूप जानना चाहिए।
इस प्रकार छह नाम के रूप में छह भावों का निरूपण करने के अनन्तर अब क्रमप्राप्त सप्तनाम की प्ररूपणा करते हैं।
सप्तनाम
२६०. (१) से किं तं सत्तनांमे ? · सत्तनामे सत्त सरा पण्णत्ता । तं जहा
सजे १ रिसभे २ गंधारे ३ मज्झिमे ४ पंचमे सरे ५ ।
धेवए ६ चेव णेसाए ७ सरा सत्त वियाहिया ॥ २५॥ [२६०-१ प्र.] भगवन् ! सप्तनाम का क्या स्वरूप है ?
[२६०-१ उ.] आयुष्मन् ! सप्तनाम सात प्रकार के स्वर रूप है। स्वरों के नाम इस प्रकार हैं-१. षड्ज, २. ऋषभ, ३. गांधार, ४. मध्यम, ५. पंचम, ६. धैवत और ७. निषाद, ये सात स्वर जानना चाहिए। २५
विवेचन– सूत्र में सप्तनाम के रूप में सात स्वरों का वर्णन किया है। वह इसलिए कि पुरुषों की बहत्तर और स्त्रियों की चौसठ कलाओं में शकुनिरुत गीत, संगीत, वाद्यवादन आदि का समावेश किया गया है और वे स्वर ध्वनिविशेषात्मक हैं। सात स्वरों के लक्षण इस प्रकार हैं
१. षड्ज– छह से जन्य। अर्थात् स्वरोत्पत्ति के कारणभूत कंठ, वक्षस्थल, तालु, जिह्वा, दन्त और नासिका