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नामाधिकारनिरूपण
१५९ कौन से भाव प्रकट होते हैं, उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
आभिनिबोधिकज्ञान अर्थात् मतिज्ञान। इस ज्ञान की प्राप्ति का नाम आभिनिबोधिकज्ञानलब्धि है। यह मतिज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम से प्राप्त होने के कारण क्षायोपशमिकी है। इसी प्रकार श्रुतज्ञानलब्धि, अवधिज्ञानलब्धि और मनःपर्यायज्ञानलब्धि तत्तत् ज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम से प्राप्त होने के कारण क्षयोपशमनिष्पन्न है।
केवलज्ञान और केवलदर्शन भी लब्धिरूप हैं। किन्तु केवलज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म के क्षय से प्राप्त होने के कारण यहां उनका उल्लेख नहीं किया है। वे क्षयनिष्पन्नलब्धि हैं।
मति-अज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञानावरण के क्षयोपशम से श्रुत-अज्ञान, विभंग-ज्ञानावरण के क्षयोपशम से विभंगज्ञान की प्राप्ति होने से इन्हें क्षायोपशमिकी मत्यज्ञान-श्रुताज्ञान-विभंगज्ञानलब्धि कहा है। यहां अज्ञान का अर्थ ज्ञान का अभाव नहीं किन्तु मिथ्याज्ञान समझना चाहिए।
क्षायोपशमिकी चक्षुदर्शनलब्धि, अचक्षुदर्शनलब्धि, अवधिदर्शनलब्धि क्रमशः चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण और अवधिदर्शनावरण कर्म के क्ष्योपशम से प्राप्त होने के कारण क्षयोपशमनिष्पन्न हैं।
सम्यग्दर्शनलब्धि, मिथ्यादर्शनलब्धि, सम्यग्मिथ्यादर्शनलब्धि की प्राप्ति मिथ्यात्वमोहनीय कर्म के क्षयोपशम से होने के कारण क्षयोपशमनिष्पन्न हैं।
सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसंपराय नामक चार चारित्रलब्धियां चारित्रमोहनीयकर्म के क्षयोपशम से तथा चारित्राचारित्रलब्धि (देशचारित्रलब्धि) अनन्तानुबंधी एवं अप्रत्याख्यानावरण कषाय के क्षयोपशम से प्राप्त होती हैं।
दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य लब्धि दानान्तराय आदि पांच अन्तरायकर्म के क्षयोपशम से प्राप्त होने के कारण क्षयोपशमनिष्पन्न हैं।
पंडितवीर्यलब्धि, बालवीर्यलब्धि एवं बालपंडितवीर्यलब्धि की प्राप्ति वीर्यान्तरायकर्म के क्षयोपशम से होती
है।
श्रोत्रेन्द्रिय से लेकर स्पर्शनेन्द्रिय तक की पांच इन्द्रियलब्धियां भावेन्द्रिय की अपेक्षा जानना चाहिए। वे मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण के क्षयोपशम से होती हैं। इसी प्रकार आचारांग आदि बारह अंगों को धारण करने और वाचक रूप लब्धियां श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम से होती हैं। अतः ये क्षायोपशमिक हैं।
क्षायोपशमिक और उपशमभाव में अन्तर- क्षय और उपशम का संयोगज रूप क्षयोपशम है। उदयप्राप्त कर्म का क्षय और अनुदीर्ण उसी कर्म का विपाक की अपेक्षा से उदयाभाव इस प्रकार के क्षय से उपलक्षित उपशम क्षयोपशम कहलाता है। यही स्थिति औपशमिकभाव की भी है। वहां भी उदयप्राप्त कर्म का सर्वथा क्षय और अनुदयप्राप्त कर्म का न क्षय और न उदय किन्तु उपशम है। इस प्रकार सामान्य से दोनों में कोई अन्तर प्रतीत नहीं होता है। फिर भी दोनों में अन्तर है। वह यह कि क्षयोपशमभाव में कर्म का जो उपशम है वह विपाक की अपेक्षा से है, प्रदेश की अपेक्षा से नहीं। क्योंकि प्रदेश की अपेक्षा से तो वहां कर्म का उदय रहता है। परन्तु औपशमिकभाव में विपाक और प्रदेश दोनों की अपेक्षा उपशम जानना चाहिए। औपशमिकभाव में कर्म का न विपाकोदय होता है और न प्रदेशोदय ही होता है। इसीलिए क्षायोपशमिक और औपशमिक ये दोनों पृथक्-पृथक् भाव माने गये हैं।