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________________ अनुयोगद्वारसूत्र ११६ स्थिति वाला ही होता है । यदि अचित्त महास्कन्ध को सर्वलोकव्यापी माना जाये तो फिर अनानुपूर्वी और अवक्तव्य द्रव्यों के ठहरने का स्थान न होने के कारण उनका अभाव मानना पड़ेगा। लेकिन देशोन लोकं में उसकी स्थिति मानने पर लोक में कम से कम एक प्रदेश ऐसा भी रहेगा जिसमें अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्य के ठहरने के लिए स्थान मिल जाता है। इसी प्रकार से एक अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्य के लिए समझना चाहिए कि वे लोक के असंख्यात भाग में रहते हैं। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है— क्षेत्रानुपूर्वी की तरह कालानुपूर्वी में भी एक अनानुपूर्वी और एक अवक्तव्यक द्रव्य लोक के असंख्यातवें भाग में रहता है। काल की अपेक्षा क्रमशः जिसकी एक समय और दो समय की स्थिति है, वह क्षेत्र की अपेक्षा भी एक और दो प्रदेश में स्थित होता है और वे प्रदेश लोक के असंख्यातवें भाग हैं। दो आदेश — मलधारीयावृत्ति में निम्नलिखित दो आदेशान्तरों का उल्लेख है—१. आएसंतरेण वा सव्वपुच्छासु होज्जा । २. महाखंधवज्जमन्नदव्वेसु आइल्ला चउपुच्छासु होज्जा । प्रथम आदेश का संकेत अनानुपूर्वी के अवगाढ होने के प्रसंग में किया है। वह प्रकारान्तर से सूत्रोक्त संख्येय आदि पांचों पृच्छाओं में लभ्य है। तात्पर्य यह हुआ कि एक समय की स्थिति वाले अनानुपूर्वीद्रव्य में से कोई एक द्रव्य लोक के संख्यात भाग में, कोई एक असंख्यात भाग में, कोई एक संख्यात भागों में कोई एक असंख्यात भागों और कोई एक सर्वलोक में रहता है तथा नाना अनानुपूर्वीद्रव्यों की अपेक्षा वे सर्वलोक में भी रहते हैं। क्योंकि एक समय की स्थिति वाले अनानुपूर्वी द्रव्यों का सर्वत्र सत्त्व है। एक अनानुपूर्वीद्रव्य का सर्वलोक में रहना अचित्त महास्कन्ध की दंडं, कपाट आदि अवस्थाओं की अपेक्षा जानना चाहिए। क्योंकि ये दंडादि अवस्थायें आकार भेद से परस्पर भिन्न-भिन्न हैं और एक-एक समयवर्ती हैं। अतः एक-एक समयवर्ती होने के कारण वे पृथक्-पृथक् अनानुपूर्वीद्रव्य हैं। दूसरे आदेश का सम्बन्ध अवक्तव्यकद्रव्य से है। दो समय की स्थिति वाला कोई एक अवक्तव्यकद्रव्य के संख्यातवें भाग में, कोई असंख्यातवें भाग में, कोई संख्यात भागों में और कोई असंख्यात भागों में अवगाढ होता है, किन्तु सर्वलोक में अवगाढ नहीं होता है। क्योंकि सर्वलोक में अवगाढ तो महास्कन्ध होता है और वह दो समयों की स्थिति वाला नहीं है। इसी कारण अवक्तव्यकद्रव्य के विषय में पांचवां विकल्प सम्भव नहीं है । नाना अवक्तव्यकद्रव्यों की सर्वलोकव्यापिता स्वतः सिद्ध ही है । स्पर्शना के लिए क्षेत्रानुपूर्वीवत् समझने के लिए संकेत का तात्पर्य यह क्षेत्रानुपूर्वी की तरह कालानुपूर्वी में भी एक-एक आनुपूर्वीद्रव्य लोक के संख्यातवें भाग, असंख्यातवें भाग, संख्यात भागों, असंख्यात भागों अथवा देशोन लोक का और अनेक द्रव्यों की अपेक्षा सर्वलोक का स्पर्श करते हैं। तथा एक-एक अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्य लोक के मात्र असंख्यातवें भाग का स्पर्श करते हैं । किन्तु संख्यातवें भाग, संख्यातवें भागों, असंख्यातवें भागों और देशोन लोक का स्पर्श नहीं करते हैं। विविध द्रव्यों की अपेक्षा नियमतः सर्वलोक का स्पर्श जानना चाहिए ।
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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