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________________ आनुपूर्वीनिरूपण य अवत्तव्वए य ६, अहवा तिपएसिया य परमाणुपोग्गला य दुपएसिया य आणुपुव्वी य अणाणुपुव्वी य अवत्तव्वए य ७ । से तं संगहस्स भंगोवदंसणया । [१२० प्र.] भगवन् ! संग्रहनयसम्मत भंगोपदर्शनता का क्या स्वरूप है ? ७९ [१२० उ.] आयुष्मन् ! संग्रहनयसम्मत भंगोपदर्शनता का स्वरूप इस प्रकार है— त्रिप्रदेशिक स्कन्ध आनुपूर्वी शब्द के वाच्यार्थ रूप में, परमाणुपुद्गल अनानुपूर्वी शब्द के वाच्यार्थ रूप में और द्विप्रदेशिक स्कन्ध अवक्तव्यक शब्द 'वाच्यार्थ रूप में विवक्षित होते हैं। अथवा — त्रिदेशिक स्कन्ध और परमाणुपुद्गल आनुपूर्वी - अनानुपूर्वी शब्द के वाच्यार्थ रूप में, त्रिप्रदेशिक और द्विप्रदेशिक स्कन्ध आनुपूर्वी - अवक्तव्यक शब्द के वाच्यार्थ रूप में तथा परमाणुपुद्गल और द्विप्रदेशिक स्कन्ध, अनानुपूर्वी-अ - अवक्तव्यक शब्द के वाच्यार्थ रूप में विवक्षित होते हैं । अथवा — त्रिप्रदेशिक स्कन्ध-परमाणुपुद्गल - द्विप्रदेशिक स्कन्ध आनुपूर्वी - अनानुपूर्वी - अवक्तव्यक शब्द के वाच्यार्थ रूप में विवक्षित होते हैं । इस प्रकार से संग्रहनयसम्मत भंगोपदर्शनता का स्वरूप जानना चाहिए । विवेचन — पूर्व सूत्र में भंगसमुत्कीर्तन के रूप में जिन संज्ञाओं का उल्लेख किया था, उन संज्ञाओं का वाच्यार्थ इस सूत्र में स्पष्ट किया है कि आनुपूर्वी, अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक शब्द के द्वारा यावन्मात्र त्रिप्रदेशिक आदि स्कन्ध, परमाणुपुद्गल और द्विप्रदेशिक स्कन्ध ग्रहण किये जाते हैं । अर्थात् यही इनके वाच्यार्थ हैं । इसी प्रकार द्विसंयोगी और त्रिसंयोगी पदों का वाच्यार्थ समझ लेना चाहिए । समवतारप्ररूपणा १२१. से किं तं समोयारे ? समोयारे संगहस्स आणुपुव्वीदव्वाइं कहिं समोयरंति ? किं . आणुपुव्वीदव्वेहिं समोयरंति ? अणाणुपुव्वीदव्वेहिं समोयरंति ? अवत्तव्वयदव्वेहिं समोयरंति ? संगहस्स आणुपुव्वीदव्वाइं आणुपुव्वीदव्वेहिं समोयरंति, नो अणाणुपुव्वीदव्वेहिं समोयरंति, नो अवत्तव्वयदव्वेहिं समोयरंति । एवं दोण्णि वि सट्टाणे सट्ठाणे समोयरंति । तं समोयारे । [१२१ प्र.] भगवन् ! समवतार का क्या स्वरूप है ? क्या संग्रहनयसम्मत आनुपूर्वीद्रव्य आनुपूर्वीद्रव्यों में समाविष्ट होते हैं ? अथवा अनानुपूर्वीद्रव्यों में समाविष्ट होते हैं ? या अवक्तव्यकद्रव्यों में समाविष्ट होते हैं ? [१२१ उ.] आयुष्मन् ! संग्रहनयसम्मत आनुपूर्वीद्रव्य आनुपूर्वीद्रव्यों में समवतरित होते हैं, अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यों में नहीं। इसी प्रकार दोनों भी— अनानुपूर्वीद्रव्य और अवक्तव्यकद्रव्य भी—– — स्वस्थान में ही समवतरित होते हैं । यह समवतार का स्वरूप है। विवेचन- - समवतार सम्बन्धी स्पष्टीकरण नैगमव्यवहारनयसम्मत समवतार के प्रसंग में किया जा चुका है। तदनुरूप यहां भी समझ लेना चाहिए कि सजातीय का सजातीय में ही समावेश होता है। समावेश होना ही संमवतार की परिभाषा है।
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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