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________________ ४२ ] [ नन्दीसूत्र अप्रशस्त अध्यवसाय में वर्त्तमान देशविरति और सर्वविरति चारित्र वाला श्रावक या साधु जब अशुभ विचारों से संक्लेश को प्राप्त होता है तथा उसके चारित्र में संक्लेश होता है तब सब ओर से तथा सब प्रकार से अवधिज्ञान का पूर्व अवस्था से ह्रास होता है । इस प्रकार हानि को प्राप्त होते हुए अवधिज्ञान को हीयमान अवधिज्ञान कहते हैं । विवेचन—जब साधक के चारित्रमोहनीय कर्मों का उदय होता है तब आत्मा में अशुभ विचार आते हैं। जब सर्वविरत, देशविरत या अविरत - सम्यग्दृष्टि संक्लिष्टपरिणामी हो जाते हैं तब उनको प्राप्त अवधिज्ञान ह्रास को प्राप्त होने लगता है । सारांश यह है कि अप्रशस्त योग एवं संक्लेश, ये दोनों ही ज्ञान के विरोधी अथवा बाधक हैं । प्रतिपाति अवधिज्ञान २३ से कि तं पडिवाति ओहिणाणं ? पडिवाति ओहिणाणं जण्णं जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं वा संखेज्जतिभागं वा, वालग्गं वा वालग्गपुहुत्तं वा, लिक्खं वा लिक्खपुहुत्तं वा, जूयं वा जूयपुहुत्तं वा, जवं वा जवपुहुत्तं वा, अंगुलं वा अंगुलपुहुत्तं वा, पायं वा पायपुहुत्तं वा, वियत्थि वा वियत्थिपुहुत्तं वा, रयणं वा रयणिपुहुत्तं वा, कुच्छि वा कुच्छिपुहुत्तं वा, धणुयं वा धणुयपुहुत्तं वा, गाउयं वा गाउयपुहुत्तं वा, जोयणं वा जोयणपुहुत्तं वा, जोयणसयं वा जोयणसयपुहुत्तं वा, जोयणसहस्सं वा जोयणसहस्सपुहुत्तं वा, जोयणसतसहस्सं वा जोयणसतसहस्सपुहुत्तं वा, जोयणकोडिं वा जोयणकोडिपुहुत्तं वा, जोयणकोडाकोडिं वा जोयण-कोडाकोडिपुहुत्तं वा उक्कोसेण लोगं वा पासित्ता णं पडिवएज्जा से तं पडिवाति ओहिणाणं । २३ प्रश्न प्रतिपाति अवधिज्ञान का क्या स्वरूप है ? उत्तर—प्रतिपाति अवधिज्ञान, जघन्य रूप से अंगुल के असंख्यातवें भाग को अथवा संख्यातवें भाग को, इसी प्रकार बालाग्र या बालाग्रपृथक्त्व, लीख या लीखपृथक्त्व, यूका — जूँ या यूकापृथक्त्व, यव― जौ या यवपृथक्त्व, अंगुल या अंगुलपृथक्त्व, पाद या पादपृथक्त्व, अथवा वितस्ति - विलात या वितस्तिपृथक्त्व, रत्नि- हाथ परिमाण या रत्निपृथक्त्व, कुक्षि—दो हस्तपरिमाण या कुक्षिपृथक्त्व, धनुष - चार हाथ परिमाण या धनुषपृथक्त्व, कोस—क्रोश या कोसपृथक्त्व, योजन या योजनपृथक्त्व, योजनशत (सौ योजन ) या योजनशतपृथक्त्व, योजन - सहस्र – एक हाजर योजन या सहस्रयोजनपृथक्त्व, लाख योजन अथवा लाखयोजनपृथक्त्व, योजनकोटि— एक करोड़ योजन या योजनकोटिपृथक्त्व, योजन कोटिकोटि या योजन कोटाकोटिपृथक्त्व, संख्यात योजन या संख्यातयोजनपृथक्त्व, असंख्यात या असंख्यातपृथक्त्व योजन अथवा उत्कृष्ट रूप से सम्पूर्ण लोक को देखकर जो ज्ञान नष्ट हो जाता है उसे प्रातिपाति अवधिज्ञान कहा गया है । विवेचन—प्रातिपाति का अर्थ है गिरने वाला अथवा पतित होने वाला । पतन तीन प्रकार से होता है । (१) सम्यक्त्व से (२) चारित्र से (३) उत्पन्न हुए विशिष्ट ज्ञान से । प्रातिपाति अवधिज्ञान जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग को और उत्कृष्ट सम्पूर्ण लोक तक को विषय करके पतन को
SR No.003467
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_nandisutra
File Size17 MB
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