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________________ ३०] [नन्दीसूत्र सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के प्रकार ४ से किं तं इंदिय-पच्चक्खं? इंदिय-पच्चक्खं पंचविहं पण्णत्तं, तं जहा (१) सोइंदियपच्चक्खं, (२) चक्खिदियपच्चक्खं, (३) घाणिंदियपच्चक्खं, (४) रसनेंदियपच्चक्खं, (५) फासिंदियपच्चक्खं। से तं इंदियपच्चक्खं। ४–प्रश्न—भगवन् ! इन्द्रियप्रत्यक्ष ज्ञान किसे कहते हैं? उत्तर—इन्द्रियप्रत्यक्ष पाँच प्रकार का है यथा(१) श्रोत्रेन्द्रिय-प्रत्यक्ष जो कान से होता है। (२) चक्षुरिन्द्रिय-प्रत्यक्ष–ज़ो आँख से होता है। (३) घ्राणेन्द्रिय-प्रत्यक्ष जो नाक से होता है। (४) जिह्वेन्द्रिय-प्रत्यक्ष जो जिह्वा से होता है। (५) स्पर्शनेन्द्रिय-प्रत्यक्ष —जो त्वचा से होता है। विवेचन श्रोत्रेन्द्रिय का विषय शब्द है। शब्द दो प्रकार का होता है, 'ध्वन्यात्मक' और 'वर्णात्मक'। दोनों से ही ज्ञान उत्पन्न होता है। इसी प्रकार चक्षु का विषय रूप है। घ्राणेन्द्रिय का गन्ध, रसनेन्द्रिय का रस एवं स्पर्शनेन्द्रिय का विषय स्पर्श है। यहाँ एक शंका उत्पन्न हो सकती है कि स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र, इस क्रम को छोड़कर श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय इत्यादि क्रम से इन्द्रियों का निर्देश क्यों किया गया है? इस शंका के उत्तर में बताया गया है कि इसके दो कारण हैं। एक कारण तो पूर्वानुपूर्वी और पश्चादनुपूर्वी दिखलाने के लिए सूत्रकार ने उत्क्रम की पद्धति अपनाई है। दूसरा कारण यह है कि जिस जीव में क्षयोपशम और पुण्य अधिक होता है वह पंचेन्द्रिय बनता है, उससे न्यून हो तो चतुरिन्द्रिय बनता है। इसी क्रम से जब पुण्य और क्षयोपशम सर्वथा न्यून होता है तब जीव एकेन्द्रिय होता है। अभिप्राय यह है कि जब क्षयोपशम और पुण्य को मुख्यता दी जाती है तब उत्क्रम से इन्द्रियों की गणना प्रारम्भ होती है और जब जाति की अपेक्षा से गणना की जाती है तब पहले स्पर्शन, रसन आदि क्रम को सूत्रकार अपनाते हैं। पांचों इन्द्रियाँ और छठा मन, ये सभी श्रुतज्ञान में निमित्त हैं किन्तु श्रोत्रेन्द्रिय श्रुतज्ञान में मुख्य कारण है। अतः सर्वप्रथम श्रोत्रेन्द्रिय का नाम निर्देश किया गया है। ___ पारमार्थिक प्रत्यक्ष के तीन भेद ५-से किं तं नोइंदियपच्चक्खं ? नोइंदियपच्चक्खं तिविहं पण्णत्तं, तं जहा (१) ओहिणाणपच्चक्खं (२) मणपज्जवणाणपच्चक्खं (३) केवलणाणपच्चक्खं।
SR No.003467
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_nandisutra
File Size17 MB
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