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________________ २८] [नन्दीसूत्र की सहायता से होता है, वह परोक्ष कहलाता है। ज्ञानों की क्रमव्यवस्था—पांच ज्ञानों में सर्वप्रथम मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का निर्देश किया है। इसका कारण यह है कि ये दोनों ज्ञान सम्यक् या मिथ्या रूप में, न्यूनाधिक मात्रा में समस्त संसारी जीवों को सदैव प्राप्त रहते हैं। सबसे अधिक अविकसित निगोदियाजीवों में भी अक्षर का अनन्तवां भाग ज्ञान प्रकट रहता है। इसके अतिरिक्त इन दोनों ज्ञानों के होने पर ही शेष ज्ञान होते हैं। अतएव इन दोनों का सर्वप्रथम निर्देश किया गया है। दोनों में भी पहले मतिज्ञान के उल्लेख का कारण यह है कि श्रुतज्ञान, मतिज्ञानपूर्वक ही होता है। मतिज्ञान-श्रुतज्ञान के पश्चात् अवधिज्ञान का निर्देश करने का हेतु यह है कि इन दोनों के साथ अवधिज्ञान की कई बातों में समानता है। यथा जैसे मिथ्यात्व के उदय से मतिज्ञान और श्रुतज्ञान मिथ्यारूप में परिणत होते हैं, वैसे ही अवधिज्ञान भी मिथ्यारूप में परिणत हो जाता है। इसके अतिरिक्त कभी-कभी, जब कोई विभंगज्ञानी सम्यग्दृष्टि होता है तब तीनों ज्ञान एक ही साथ उत्पन्न होते हैं, अर्थात् सम्यक् रूप के परिणत होते हैं। जैसे मतिज्ञान और श्रुतज्ञान की लब्धि की अपेक्षा छियासठ सागरोपम से किंचित् अधिक स्थिति है, अवधिज्ञान की भी इतनी ही स्थिति है। इन समानताओं के कारण मति-श्रुत के अनन्तर अवधिज्ञान का निर्देश किया गया है। अवधिज्ञान के पश्चात् मनःपर्यवज्ञान का निर्देश इस कारण किया गया है कि दोनों में प्रत्यक्षत्व की समानता है। जैसे अवधिज्ञान पारमार्थिक प्रत्यक्ष है, विकल है तथा क्षयोपशमजन्य है, उसी प्रकार मन:पर्यवज्ञान भी है। केवलज्ञान सबके अन्त में प्राप्त होता है, अतएव उसका निर्देश अन्त में किया गया है। प्रत्यक्ष के भेद ३. से किं तं पच्चक्खं ? पच्चक्खं दुविहं पण्णत्तं तं जहा-इंदियपच्चक्खं च णोइंदियपच्चखं च। ३–प्रश्न प्रत्यक्ष ज्ञान क्या है ? उत्तर—प्रत्यक्षज्ञान के दो भेद हैं, यथा(१) इन्द्रिय-प्रत्यक्ष और (२) नोइन्द्रिय-प्रत्यक्ष। विवेचन इन्द्रिय आत्मा की वैभाविक परिणति है। इन्द्रिय के भी दो भेद हैं(१) द्रव्येन्द्रिय (२) भावेन्द्रिय। द्रव्येन्द्रिय के भी दो प्रकार होते हैं—(१) निर्वृत्ति द्रव्येन्द्रिय और (२) उपकरण द्रव्येन्द्रिय। निर्वृत्ति का अर्थ है रचना, जो बाह्य और आभ्यंतर के भेद से दो प्रकार की है। बाह्य
SR No.003467
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_nandisutra
File Size17 MB
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