SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 62
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञान के पांच प्रकार ] क्षमता रखता है उसे केवलज्ञान कहते हैं । विशुद्ध चार क्षायोपशमिक ज्ञान शुद्ध हो सकते हैं किन्तु विशुद्ध नहीं । विशुद्ध एक केवलज्ञान ही होता है। क्योंकि वह शुद्ध आत्मा का स्वरूप है। [ २७ प्रतिपूर्ण–— क्षायोपशमिक ज्ञान किसी पदार्थ की सर्व पर्यायों को नहीं जान सकते किन्तु जो ज्ञान सर्व द्रव्यों की समस्त पर्यायों को जानने वाला होता है उसे प्रतिपूर्ण कहा जा सकता है। अनन्त—– जो ज्ञान अन्य समस्त ज्ञानों से श्रेष्ठतम, अनन्तानन्त पदार्थों को जानने की शक्ति रखने वाला तथा उत्पन्न होने पर फिर कभी नष्ट न होने वाला होता है उसे ही केवलज्ञान कहते हैं। निरावरण—–— केवलज्ञान, घाति कर्मों के सम्पूर्ण क्षय से उत्पन्न होता है, अतएव वह निरावरण क्षायोपशमिक ज्ञानों के साथ राग-द्वेष, क्रोध, लोभ एवं मोह आदि का अंश विद्यमान रहता है किन्तु केवलज्ञान इन सबसे सर्वथा रहित, पूर्ण विशुद्ध होता है। । उपर्युक्त पाँच प्रकार के ज्ञानों में पहले दो ज्ञान परोक्ष हैं और अन्तिम तीन प्रत्यक्ष । श्रुतज्ञान के दो प्रकार हैं – (१) अर्थश्रुत एवं (२) सूत्रश्रुत । अरिहन्त केवलज्ञानियों के द्वारा अर्थश्रुत प्ररूपित होता है तथा अरिहन्तों के उन्हीं प्रवचनों को गणधर देव सूत्ररूप में गुम्फित करते हैं। तब वह श्रुत सूत्र कहलाने लगता है। कहा भी है 'अत्थं भासइ अरहा, सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं । सासणस्स हियट्ठाए, तओ सुत्तं पवत्तेइ ' ॥ अर्थ का प्रतिपादन अरिहन्त करते हैं तथा शासनहित के लिए गणधर उस अर्थ को सूत्ररूप में गूंथ हैं । सूत्रागम में भाव और अर्थ तीर्थंकरों के होते हैं, शब्द गणधरों के । प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाण २. तं समासओ दुविहं पण्णत्तं, तं जहा - पच्चक्खं च परोक्खं च ॥ २ – ज्ञान पाँच प्रकार का होने पर भी संक्षिप्त में दो प्रकार से वर्णित है, यथा ( १ ) प्रत्यक्ष और (२) परोक्ष | विवेचन अक्ष जीव या आत्मा को कहते हैं। जो ज्ञान आत्मा के प्रति साक्षात् हो अर्थात् सीधा आत्मा से उत्पन्न हो, जिसके लिए इन्द्रियादि किसी माध्यम की अपेक्षा न हो, वह प्रत्यक्ष ज्ञान कहलाता है । अवधिज्ञान और मनः पर्यवज्ञान, ये दोनों ज्ञान देश (विकल) प्रत्यक्ष कहलाते । केवलज्ञान सर्वप्रत्यक्ष है, क्योंकि समस्त रूपी अरूपी पदार्थ उसके विषय हैं। जो ज्ञान इन्द्रिय और मन आदि -
SR No.003467
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_nandisutra
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy