________________
१४]
[नन्दीसूत्र ३०-सदैव श्रुत के अध्ययन-अध्यापन में रत, शास्त्रोक्त क्रिया करने वाले, धर्म-ध्यान के ध्याता, ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि का उद्योत करने वाले तथा श्रुत-रूप सागर के पारगामी धीर (विशिष्ट बुद्धि से सुशोभित) (१६) आर्य मंगु को वन्दन करता हूँ।
३१. वंदामि अजधम्म, तत्तो वंदे य भद्दगुत्तं च ।
तत्तो य अजवइरं, तवनियमगुणेहिं वइरसमं ॥ ३१ - आचार्य (१७) आर्य धर्म को, फिर (१८) श्री भद्रगुप्त को वन्दन करता हूँ। पुनः तप नियमादि गुणों से सम्पन्न वज्रवत् सुदृढ़ (१९) श्री आर्य वज्रस्वामी को वन्दन करता हूँ।
३२. वंदामि अज्जरक्खियखवणे, रक्खिय चरित्तसव्वस्से।
रयण-करंडगभूओ-अणुओगो रक्खिओ जेहिं ॥ ३२—जिन्होंने स्वयं के एवं अन्य सभी संयमियों के चारित्र सर्वस्व की रक्षा की तथा जिन्होंने रत्नों की पेटी के समान अनुयोग की रक्षा की, उन क्षपण-तपस्वीराज (२०) आचार्य श्री आर्यरक्षित को वन्दन करता हूँ।
३३. णाणम्मि दंसणम्मि य, तवविणए णिच्चकालमुज्जुत्तं ।
अन्जं नंदिल-खपणं, सिरसा वंदे पसन्नमणं ॥ ३३—ज्ञान, दर्शन, तप और विनयादि गुणों में सर्वदा उद्यत, तथा राग-द्वेष विहीन प्रसन्नमना, अनेक गुणों से सम्पन्न आर्य (२१) नन्दिल क्षपण को सिर नमाकर वन्दन करता हूँ।
३४. वड्ढउ वायगवंसो, जसवंसो अज्जनागहत्थीणं ।
वागरण-करण-भंगिय-कम्मप्पयडीपहाणाणं॥ ३४—व्याकरण अर्थात् प्रश्नव्याकरण, अथवा संस्कृत तथा प्राकृत भाषा के शब्दानुशासन में निपुण, पिण्डविशुद्धि आदि उत्तरक्रियाओं और भंगों के ज्ञाता तथा कर्मप्रकृति की प्ररूपणा करने में प्रधान, ऐसे आचार्य नन्दिल क्षपण के पट्टधर शिष्य (२२) आर्य नागहस्ती का वाचकवंश मूर्त्तिमान् यशोवंश की तरह अभिवृद्धि को प्राप्त हो।
३५. जच्चंजणधाउसमप्पहाणं, मद्दियकुवलय-निहाणं ।
वड्ढउ वायगवंसो, रेवइनक्खत्त-नामाणं ॥ ३५—उत्तम जाति के अंजन धातु के सदृश प्रभावोत्पादक, परिपक्व द्राक्षा और नीलकमल अथवा नीलमणि के समान कांतियुक्त (२३) आर्य रेवतिनक्षत्र का वाचक-वंश वृद्धि प्राप्त करे।
३६. अयलपुरा णिक्खंते, कालिय-सुय-आणुओगिए धीर।
बंभद्दीवग-सीहे, वायग-पय-मुत्तमं पत्ते ॥ ३६—जो अचलपुर में दीक्षित हुए, और कालिक श्रुत की व्याख्या—व्याख्यान में अन्य