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युग-प्रधान-स्थविरावलि का-वन्दन]
[१३ २५–भगवान् महावीर के पट्टधर शिष्य (१) अग्निवेश्यायन गोत्रीय सुधर्मा स्वामी, (२) काश्यपगोत्रीय श्री जम्बूस्वामी, (३) कात्यायनगोत्रीय श्री प्रभवस्वामी तथा (४) वत्सगोत्रीय श्री शय्यम्भवाचार्य को मैं वन्दन करता हूँ।
विवेचन उक्त तथा आगे की गाथाओं में भगवान् के निर्वाण पद प्राप्त करने के पश्चात् गणाधिपति होने के कारण सुधर्मा स्वामी आदि कतिपय पट्टधर आचार्यों का अभिवादन किया गया है। यह स्थविरावली सुधर्मा स्वामी से प्रारम्भ होती है क्योंकि इनके सिवाय शेष गणधरों की शिष्यपरम्परा नहीं चली।
२६. जसभदं तुंगियं वंदे, संभूयं चेव माढरं ।
भद्दबाहुं च पाइन्नं, थूलभदं च गोयमं ॥ २६-(५) तुंगिक गीत्रीय यशोभद्र को, (६) माढर गोत्रीय संभूत विजय को, भद्रबाहु स्वामी को तथा (८) गौतम गोत्रीय स्थूलभद्र को वन्दन करता हूँ।
२७. एलावच्चसगोत्तं, वंदामि महागिरिं सुहत्थिं च ।
तत्तो कोसिअ-गोतं, बहुलस्स सरिव्वयं वंदे ॥ २७–(९) एलापत्य गोत्रीय आचार्य महागिरि और (१०) सुहस्ती को वन्दन करता हूँ। तथा कौशिक-गोत्र वाले बहुल मुनि के समान वय वाले बलिस्सह को भी वन्दन करता हूँ।
(११) बलिस्सह उस युग के प्रधान आचार्य हुए हैं। दोनों यमल भ्राता तथा गुरुभ्राता होने से स्तुतिकार ने उन्हें बड़ी श्रद्धा से नमस्कार किया है।
२८. हारियगुत्तं साइं च वंदिमो हारियं च सामजं ।
वंदे कोसियगोत्तं, संडिल्लं अज्जजीय-धरं ॥ २८–(१२) हारीत गोत्रीय स्वाति को (१३) हारीत गोत्रीय श्री श्यामार्य को तथा (१४) कौशिक गोत्रीय आर्य जीतधर शाण्डिल्य को वन्दन करता हूँ।
२९. ति-समुदखाय-कित्तिं, दीव-समुद्देसु गहियपेयालं।
वंदे अज्जसमुदं, अक्खुभियसमुद्दगभीरं ॥ २९—पूर्व, दक्षिण और पश्चिम, इन तीनों दिशाओं में, समुद्र पर्यन्त प्रसिद्ध कीर्तिवाले, विविध द्वीप समुद्रों में प्रामाणिकता प्राप्त अथवा द्वीपसागरप्रज्ञप्ति के विशिष्ट ज्ञाता, अक्षुब्ध समुद्र समान गंभीर (१५) आर्य समुद्र को वन्दन करता हूँ।
'ति-समुद्द-खाय-कित्तिं'—इस पद से ध्वनित होता है कि भारतवर्ष की सीमा तीन दिशाओं में समुद्र-पर्यन्त है।
३०. भणगं करगं झरगं, पभावगं णाणदंसणगुणाणं ।
वंदामि अज्जमंगुं, सुय-सागर पारगं धीरं ॥