SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ नन्दीसूत्र संघमेरु की पीठिका सम्यग्दर्शन है। स्वर्ण मेखला धर्म- रत्नों से मण्डित है तथा शम दम उपशम आदि नियमों की स्वर्ण-शिलाएँ हैं । पवित्र अध्यवसाय ही संघमेरु के दीप्तिमान उत्तुंग कूट हैं । आगमों का अध्ययन, शील, सन्तोष इत्यादि अद्वितीय गुणों रूप नन्दनवन से श्रीसंघ मेरु परिवृत हो रहा है, जो मनुष्यों तथा देवों को भी सदा आनन्दित कर रहा है। नन्दनवन आकर देव भी प्रसन्न होते हैं । १०] संघ - सुमेरु प्रतिवादियों के कुतर्क युक्त असद्वाद का निराकरण रूप नानाविध धातुओं से सुशोभित है। श्रुतज्ञान - रूप रत्नों से प्रकाशमान है तथा आमर्ष आदि २८ लब्धिरूप औषधियों से परिव्याप्त है । वहाँ संवर के विशुद्ध जल के झरने निरन्तर बह रहे हैं। वे झरने मानो श्रीसंघमेरु के गले में सुशोभित हार हों, ऐसे लग रहे हैं। संघ - सुमेरु की प्रवचनशालाएँ जिनवाणी के गंभीर घोष से गूंज रही हैं, जिसे सुनकर श्रावक - गण रूप मयूर प्रसन्नता से झूम उठते हैं । विनय धर्म और नय - सरणि रूप विद्युत् से संघ - सुमेरु दमक रहा है। मूल गुणों एवं उत्तर गुणों से सम्पन्न मुनिजन कल्पवृक्ष के समान शोभायमान हो रहे हैं, क्योंकि वे सुख के हेतु एवं कर्मफल के प्रदाता विविध प्रकार के योगजन्य लब्धिरूप सुपारिजात कुसुमों से परिव्याप्त हैं। इस प्रकार अलौकिक श्री से संघ - सुमेरु सुशोभित है । प्रलयकाल के पवन से भी मेरु पर्वत कभी विचलित नहीं होता है । इसी प्रकार संघरूपी मेरु भी मिथ्यादृष्टियों के द्वारा दिये गये उपसर्गों और परिषहों से विचलित नहीं होता । वह अत्यन्त मनोहारी और नयनाभिराम | अन्य प्रकार के संघमेरु की स्तुति १८. गुण - रयणुज्जलकडयं, सील-सुगंधि-तव-मंडिउद्देसं । सुय - बारसंग - सिहरं, संघमहामन्दरं वंदे ॥ १८- - सम्यग्ज्ञान- दर्शन और चारित्र गुण रूप रत्नों से संघमेरु का मध्यभाग देदीप्यमान है। इसकी उपत्यकाएँ अहिंसा, सत्य आदि पंचशील की सुगंध से सुरभित हैं और तप से शोभायमान हैं। द्वादशांगश्रुत रूप उत्तुंग शिखर हैं । इत्यादि विशेषणों से सम्पन्न विलक्षण महामन्दर गिरिराज के सदृश संघ को मैं वन्दन करता हूँ । विवेचन - प्रस्तुत गाथा में संघ - मेरु को पूजनीय बनाने वाले चार विशेषण हैं— गुण, शील, तप और श्रुत। 'गुण' शब्द से मूल गुण उत्तर गुण जानने चाहिए। 'शील' शब्द से सदाचार व पूर्ण ब्रह्मचर्य; 'तप' शब्द से छह बाह्य और छह आभ्यन्तर तप समझना चाहिए तथा श्रुत शब्द से लोकोत्तर श्रुत। ये ही संघमेरु की विशेषताएँ हैं ।
SR No.003467
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_nandisutra
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy