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________________ संघ - चक्र एवं संघ- रथ स्तुति ] [ ५ ४— उत्तर गुणरूपी भव्य भवनों से गहन- व्याप्त, श्रुत-शास्त्र - रूप रत्नों से पूरित, विशुद्ध सम्यक्त्व रूप स्वच्छ वीथियों से संयुक्त, अतिचार रहित मूल गुण रूप चारित्र के परकोटे से सुरक्षित, हे संघ - नगर ! तुम्हारा कल्याण हो । विवेचन—- रचनाकार ने प्रस्तुत गाथा में संघ का नगर के रूपक से आख्यान किया है । उत्तर गुणों को नगर के भवनों के रूप में, श्रुत-सम्पादन को रत्नमय वैभव के रूप में, विशुद्ध सम्यक्त्व को उसकी गलियों या सड़कों के रूप में तथा अखण्ड चारित्र को परकोटे के रूप में वर्णित कर उन्होंने उसके कल्याण- संवर्धन या विकास की कामना की है। इससे मालूम होता है कि संघ रूप नगर के प्रति स्तुतिकार के हृदय में कितनी सहानुभूति, वात्सल्य, श्रद्धा और भक्ति थी । ५. संघ - चक्र की स्तुति संजम-तव- तुंबारयस्स, नमो सम्मत्त - पारियल्लस्स । अप्पचिक्कस्स जओ, होउ सया संघ - चक्कस्स ॥ ५ – सत्तरह प्रकार का संयम, संघ-चक्र का तुम्ब-नाभि है। छह प्रकार का बाह्य तप और छह प्रकार का आभ्यन्तर तप बारह आरक हैं, तथा सम्यक्त्व ही जिस चक्र का घेरा है अर्थात् परिधि है; ऐसे भावचक्र को नमस्कार हो, जो अतुलनीय है । उस संघ - चक्र की सदा जय हो । यह संघ चक्र अर्थात् भावचक्र भाव- बन्धनों का सर्वथा विच्छेद करने वाला है, इसलिए नमस्कार करने योग्य है । विवेचन—–शस्त्रास्त्रों में आदिकाल से ही चक्र की मुख्यता रही है। प्राचीन युग में शत्रुओं का नाश करने वाला सबसे बड़ा अस्त्र चक्र था, जो अर्धचक्री और चक्रवर्ती के पास होता है। इससे ही वासुदेव प्रतिवासुदेव का घात करता है । इस चक्र की बहुत विलक्षणता है । चक्रवर्ती को दिग्विजय करते समय यह मार्ग-दर्शन देता है । पूर्ण छह खण्डों को अपने अधीन किये बिना यह आयुधशाला में प्रवेश नहीं करता, क्योंकि वह देवाधिष्ठित होता है। ठीक इसी प्रकार श्रीसंघ - चक्र भी अपने अलौकिक गुणों से सम्पन्न है । संघ - रथ की स्तुति ६. भद्दं सीलपडागूसियस्स, तव-नियम- तुरगजुत्तस्स । संघ - रहस्स भगवओ, सज्झाय- सुनंदिघोसस्स ॥ ६- - अठारह सहस्र शीलांग रूप ऊंची पताकाएँ जिस पर फहरा रहीं हैं, तप और संयम रूप अश्व जिसमें जुते हुए हैं, पाँच प्रकार के स्वाध्याय (वाचना, पृच्छना, परावर्त्तना, अनुप्रेक्षा और धर्म - कथा) का मंगलमय मधुर घोष जिससे निकल रहा है, ऐसे भगवान् संघ- रथ का कल्याण हो विवेचन प्रस्तुत गाथा में श्रीसंघ को रथ से उपमित किया गया है। जैसे रथ पर पताका फहराती है उसी प्रकार संघ शील रूपी ऊंची पताका से मंडित है । रथ में सुन्दर घोड़े जुते रहते 1
SR No.003467
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_nandisutra
File Size17 MB
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