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________________ ४] [ नन्दीसूत्र 'जगणाहो' – प्रभु समस्त जीवों के योग-क्षेमकारी हैं। अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति को योग और प्राप्त वस्तु की सुरक्षा को 'क्षेम' कहते हैं । भगवान् अप्राप्त सम्यग्दर्शन, संयम आदि को प्राप्त कराने वाले तथा प्राप्त की रक्षा करने वाले हैं, अतः जगन्नाथ हैं। 'जगबन्धू' – इस विशेषण से ज्ञात होता है कि समस्त त्रस - स्थावर जीवों के रक्षक होने से अरिहन्त देव जगद्-बन्धु हैं । यहाँ 'जगत्' समस्त त्रस स्थावर जीवों का वाचक है 1 'जगप्पियामहो' – धर्म जगत् का पिता ( रक्षक) है और भगवान् धर्म के जनक (प्रवर्त्तक) होने से जगत् के पितामह - तुल्य हैं । यहाँ भी 'जगत्' शब्द से प्राणिमात्र समझना चाहिए । 'भयवं' – यह विशेषण भगवान् के अतिशयों का सूचक है । 'भग' शब्द में छह अर्थ समाहित हैं- ( १ ) समग्र ऐश्वर्य (२) त्रिलोकातिशायी रूप (३) त्रिलोक में व्याप्त यश (४) तीन लोक को चमत्कृत करने वाली श्री (अनन्त आत्मिक समृद्धि) (५) अखण्ड धर्म और (६) पूर्ण पुरुषार्थ । इन छह पर जिसका पूर्ण अधिकार हो, उसे भगवान् कहते हैं । महावीर - स्तुति २. जयइ सुयाणं पभवो, तित्थयराणं अपच्छिमो जयइ । जय गुरू लोगाणं, जयइ महप्पा महावीरो ॥ २ – समग्र श्रुतज्ञान के मूलस्रोत, वर्त्तमान अवसर्पिणी काल के चौबीस तीर्थंकरों में अन्तिम तीर्थंकर, तीनों लोकों के गुरु महात्मा महावीर सदा जयवन्त हैं, क्योंकि उन्होंने लोकहितार्थ धर्मदेशना दी और उनको विकार जीतना शेष नहीं रहा है। विवेचन — प्रस्तुत गाथा में भगवान् महावीर की स्तुति की गई है । भगवान् महावीर द्रव्य तथा भाव- श्रुत के उद्भव - स्थल हैं, क्योंकि सर्वज्ञता प्राप्त करने के बाद भगवान् ने जो भी उपदेश दिया वह श्रोताओं के लिए श्रुतज्ञान में परिणत हो गया । यहां भगवान् को अन्तिम तीर्थंकर, लोकगुरु और महात्मा कहा है । ३. भद्दं सव्वजगुज्जोयगस्स भद्दं जिणस्स वीरस्स । भद्दं सुराऽसुरणमंसियस्स भद्दं धुयरयस्स ॥ ३– विश्व में ज्ञान का उद्योत करने वाले, राग-द्वेष रूप शत्रुओं के विजेता, देवों-दानवों द्वारा वन्दनीय, कर्म-रज से विमुक्त भगवान् महावीर का सदैव भद्र हो । विवेचन—प्रस्तुत गाथा में भगवान् महावीर के चार विशेषण आये हैं। चारों चरणों में चार बार 'भद्दं' शब्द का प्रयोग हुआ है । ज्ञानातिशय युक्त, कषाय-विजयी तथा सुरासुरों द्वारा वन्दित होने से वे कल्याणरूप हैं। ४. संघ नगरस्तुति गुण-भवणगहण ! सु-रयणभरिय ! दंसण-विसुद्धरस्थागा । संघनगर ! भद्दं ते, अखण्ड - चारित्त-पागारा ॥
SR No.003467
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_nandisutra
File Size17 MB
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