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कहते हैं। आभिनिबोधिक के श्रुतनिश्रित व अश्रुतनिश्रित रूप दो भेद हैं। श्रुतज्ञान के अक्षर, अनक्षर, संज्ञी, असंज्ञी, सम्यक्, मिथ्या, सादि, अनादि, सावसान, निरवसान, गमिक, अगमिक, अंगप्रविष्ट व अनंगप्रविष्ट रूप चौदह भेद हैं।
नन्दीसूत्र की रचना गद्य व पद्य दोनों में है। सूत्र का ग्रन्थमान लगभग ७०० श्लोक प्रमाण है। प्रस्तुत सूत्र में प्रतिपादित विषय अन्य सूत्रों में भी उपलब्ध होते हैं। उदाहरण के लिए अवधि ज्ञान के विषय, संस्थान, भेद आदि पर प्रज्ञापनासूत्र के ३३वें पद में प्रकाश डाला गया है। भगवती (व्याख्याप्रज्ञप्ति) आदि सूत्रों में विविध प्रकार के अज्ञान का उल्लेख मिलता है। इसी प्रकार मतिज्ञान का भी भगवती आदि सूत्रों में वर्णन मिलता है। द्वादशांगी श्रुत का परिचय समवायांगसूत्र में भी दिया गया है। किन्तु वह नन्दीसूत्र से कुछ भिन्न है। इसी प्रकार अन्यत्र भी कुछ बातों में नन्दीसूत्र से भिन्नता एवं विशेषता दृष्टिगोचर होती है। मंगलाचरण
सर्वप्रथम सूत्रकार ने सामान्य रूप से अह को, तत्पश्चात् भगवान् महावीर को नमस्कार किया है। तदनन्तर जैन संघ, चौबीस जिन, ग्यारह गणधर, जिनप्रवचन तथा सुधर्म आदि स्थविरों को स्तुतिपूर्वक प्रणाम किया है।
जयइ जगजीव-जोणी-वियाणओ जगगुरू जगाणंदो। जगणाहो जगबंधू, जयई जगप्पियामहो भयवं ॥ जयइ सुआणं पभवो, नित्थयराणं अपच्छिमो जयई।
जयइ गुरू लोगाणं, जयइ महप्पा महावीरो ॥ मंगल के प्रसंग से प्रस्तुत सूत्र में आचार्य ने जो स्थविरावली-गुरु-शिष्य-परम्परा दी है, वह कल्पसूत्रीय स्थविरावली से भिन्न है। नन्दीसूत्र में भगवान् महावीर के बाद की स्थविरावली इस प्रकार है। १.सुधर्म
११. बलिस्सह २. जम्बू
१२. स्वाति ३. प्रभव
१३. श्यामार्य
४. शय्यम्भव
१४. शाण्डिल्य
५. यशोभद्र
६. सम्भूतविजय
१५. समुद्र १६. मंगु १७. धर्म
७. भद्रबाहु
१८. भद्रगुप्त
८. स्थूलभद्र ९. महागिरि
१९. वज्र
१०. सुहस्ती
२०. रक्षित
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