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श्रुतज्ञान ]
हुआ ज्ञान विस्मृत हो जाता है।
(५) ईहते - हृदयगंम किये हुए ज्ञान पर पुनः पुनः चिन्तन-मनन करे, जिससे ज्ञान मन का विषय बन सके। धारणा को दृढतम बनाने के लिए पर्यालोचन आवश्यक है।
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(६) अपोहए— प्राप्त किये हुए ज्ञान पर चिन्तन-मनन करके यह निश्चय करे कि यहां यथार्थ है जो गुरु ने कहा है, यह अन्यथा नहीं है, ऐसा निर्णय करे ।
(७) धारेइ निर्मल एवं निर्णीत सार- ज्ञान की धारणा करे ।
(८) करेइ वा सम्मं ज्ञान के दिव्य प्रकाश से ही श्रुतज्ञानी चारित्र की सम्यक् आराधना कर सकता है। श्रुतज्ञान का अन्तिम सुफल यही है कि श्रुतज्ञानी सन्मार्ग पर चले तथा चारित्र की आराधना करता हुआ कर्मों पर विजय प्राप्त करे ।
बुद्धि के ये सभी गुण क्रियारूप हैं क्योंकि गुण क्रिया के द्वारा ही व्यक्त होते हैं। ऐसा इस गाथा से ध्वनित होता है ।
श्रवणविधि के प्रकार
शिष्य अथवा जिज्ञासु जब अञ्जलिबद्ध होकर विनयपूर्वक गुरु के समक्ष सूत्र व अर्थ सुनने के लिए बैठता है तब उसे किस प्रकार सुनना चाहिए ? सूत्रकार ने उस विधि का भी गाथा में उल्लेख किया है, क्योंकि विधिपूर्वक न सुनने से ज्ञानप्राप्ति नहीं होती और सुना हुआ व्यर्थ चला जाता है। श्रवणविधि इस प्रकार है
(१) मूअं - जब गुरु अथवा आचार्य सूत्र या अर्थ सुना रहे हों, उस समय- प्रथम श्रवण के समय शिष्य को मौन रहकर दत्तचित्त होकर सुनना चाहिए ।
(२) हुंकार —— द्वितीय श्रवण में गुरु वचन श्रवण करते हुए बीच-बीच में प्रसन्नतापूर्वक 'हुंकार' करते रहना चाहिए ।
(३) बाढंकार-सूत्र व अर्थ गुरु से सुनते हुए तृतीय श्रवण में कहना चाहिए 'गुरुदेव ! आपने जो कुछ कहा है, सत्य है' अथवा 'तहत्ति' शब्द का प्रयोग करना चाहिए ।
(४) पडिपुच्छ — चौथे श्रवण में जहाँ कहीं सूत्र या अर्थ समझ में न आए अथवा सुनने से रह जाये तो बीच-बीच में आवश्यकतानुसार पूछ लेना चाहिए, किन्तु निरर्थक तर्क-वितर्क नहीं करना चाहिए ।
(५) मीमांसा— पंचम श्रवण के समय शिष्य के लिए आवश्यक है कि गुरु वचनों के आशय को समझते हुए उसके लिए प्रमाण की जिज्ञासा करे ।
(६) प्रसंगपारायण छठे श्रवण में शिष्य सुने हुए श्रुत का पारगामी बन जाता है और उसे उत्तरोत्तर गुणों की प्राप्ति होती है।
(७) परिणिट्ठा— सातवें श्रवण में शिष्य श्रुतपरायण होकर गुरुवत् सैद्धान्तिक विषय का