SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 256
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रुतज्ञान ] [ २२१ आठ गुण इस प्रकार हैं—– विनययुक्त शिष्य गुरु के मुखारविन्द से निकले हुए वचनों को सुनना चाहता है । जब शंका होती है तब पुनः विनम्र होकर गुरु को प्रसन्न करता हुआ पूछता है । गुरु के द्वारा कहे जाने पर सम्यक् प्रकार से श्रवण करता है, सुनकर उसके अर्थ — अभिप्राय को ग्रहण करता है । ग्रहण करने के अनन्तर पूर्वापर अविरोध से पर्यालोचन करता है, तत्पश्चात् यह ऐसे ही है जैसा गुरुजी फरमाते हैं, यह मानता है। इसके बाद निश्चित अर्थ को हृदय में सम्यक् रूप से धारण करता है । फिर जैसा गुरु ने प्रतिपादन किया था, उसके अनुसार आचरण करता है। आगे शास्त्रकार सुनने की विधि बताते हैं शिष्य मौन रहकर सुने, फिर हुंकार - 'जी हां' ऐसा कहे। उसके बाद बाढंकार अर्थात् 'यह ऐसे ही है जैसा गुरुदेव फरमाते हैं' इस प्रकार श्रद्धापूर्वक माने । तत्पश्चात् अगर शंका हो तो पूछे कि यह किस प्रकार है?' फिर मीमांसा करे अर्थात् विचार-विमर्श करे। तब उत्तरोत्तर गुण प्रसंग से शिष्य पारगामी हो जाता है । तत्पश्चात् वह चिन्तन-मनन आदि बाद गुरुवत् भाषण और शास्त्र की प्ररूपणा करे। ये गुण शास्त्र सुनने के कथन किए गए I व्याख्या करने की विधि प्रथम वाचना में सूत्र और अर्थ कहे। दूसरी में सूत्रस्पर्शिक नियुक्ति का कथन करे। तीसरी वाचना में सर्व प्रकार नय-निक्षेप आदि से पूर्ण व्याख्या करे । इस तरह अनुयोग की विधि शास्त्रकारों ने प्रतिपादन की है। यह श्रुतज्ञान का विषय समाप्त हुआ । इस प्राकर यह अङ्गप्रविष्ट और अङ्गबाह्य श्रुत का वर्णन सम्पूर्ण हुआ । यह परोक्षज्ञान का वर्णन हुआ। इस प्रकार श्रीनन्दी सूत्र भी परिसमाप्त हुआ । विवेचन — सूत्रकारों की यह शैली सदाकाल से अविच्छिन्न रही है कि जिस विषय का उन्होंने भेद-प्रभेदों सहित निरूपण किया, अन्त में उसका उपसंहार भी अवश्य किया। इस सूत्र में भी श्रुत के चौदह भेदों का स्वरूप बताने के पश्चात् अन्तिम एक ही गाथा में श्रुतज्ञान के चौदह भेदों का कथन किया गया है। जैसे— (१) अक्षर, (२) संज्ञी, (३) सम्यक्, (४) सादि, (५) सपर्यवसित, (६) गमिक, (७) अङ्गप्रविष्ट, (८) अनक्षर, (९) असंज्ञी, (१०) मिथ्या, (११) अनादि, (१२) अपर्यवसित, (१३) अगमिक, और (१४) अनंगप्रविष्ट । इस प्रकार सामान्य श्रुत के मूल भेद चौदह हैं, फिर भले ही वह श्रुत सम्यक् ज्ञानरूप हो अथवा अज्ञानरूप ( मिथ्याज्ञान) हो । श्रुत एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय छद्मस्थ जीवों तक सभी में पाया जाता है। श्रुतज्ञान किसे दिया जाये ? आचार्य अथवा गुरु श्रुतज्ञान देते हैं, किन्तु उन्हें भी ध्यान रखना होता है कि शिष्य सुपात्र है या कुपात्र । सुपात्र शिष्य अपने गुरु से श्रुतज्ञान प्राप्त करके स्व एवं पर के कल्याण कार्य में जुट जाता है किन्तु कुपात्र या कुशिष्य उसी ज्ञान का दुरुपयोग करके प्रवचन अथवा ज्ञान की अवहेलना
SR No.003467
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_nandisutra
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy