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________________ श्रुतज्ञान] [२१५ ११०–दृष्टिवाद की संख्यात वाचनाएं, संख्यात अनुयोगद्वार, संख्यात वेढ (छन्द), संख्यात प्रतिपत्तियाँ, संख्यात नियुक्तियाँ और संख्यात संग्रहणियाँ हैं। अङ्गार्थ से वह बारहवाँ अंग है। एक श्रुतस्कन्ध है और चौदह पूर्व हैं। संख्यात वस्तु, संख्यात चूलिका वस्तु, संख्यात प्राभृत, संख्यात प्राभृतप्राभृत, संख्यात प्राभृतिकाएं, संख्यात प्राभृतिकाप्राभृतिकाएं हैं। इसमें संख्यात सहस्रपद हैं। संख्यात अक्षर और अनन्त गम हैं। अनन्त पर्याय, परिमित त्रस तथा अनन्त स्थावरों का वर्णन है। शाश्वत, कृत-निबद्ध, निकाचित जिन-प्रणीत भाव कहे गये हैं। प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन से स्पष्ट किये गए हैं। दृष्टिवाद का अध्येता तद्रूप आत्मा और भावों का सम्यक् ज्ञाता तथा विज्ञाता बन जाता है। इस प्रकार चरण-करण की प्ररूपणा इस अङ्ग में की गई है। यह दृष्टिवादाङ्ग श्रुत का विवरण सम्पूर्ण हुआ। विवेचन दृष्टिवाद अङ्ग में भी पूर्व के अङ्गों की भांति परिमित वाचनाएं और संख्यात अनुयोगद्वार हैं। किन्तु इसमें वस्तु, प्राभृत, प्राभृतप्राभृत और प्राभृतिका की व्याख्या नहीं की गई है। इस प्रकार के विभाग पूर्ववर्ती अंगों में नहीं हैं। इन्हें इस प्रकार समझना चाहिए कि—पूर्वो में जो बड़े-बड़े अधिकार हैं, उन्हें वस्तु कहते हैं, उनसे छोटे अधिकारों को प्राभृतप्राभृत तथा उनसे छोटे अधिकार को प्राभृतिका कहते हैं। यह अंग सबसे अधिक विशाल है फिर भी इसके अक्षरों की संख्या संख्यात ही है। इसमें अनन्त गम, अनन्त पर्याय, असंख्यात त्रस और अनन्त स्थावरों का वर्णन है। द्रव्यार्थिक नय से नित्य और पर्यायार्थिक नय से अनित्य है। इसमें संख्यात संग्रहणी गाथाएं हैं। पूर्व में जो विषय निरूपण किये गये हैं, उनको कुछ गाथाओं में संकलित करने वाली गाथाएं संग्रहणी गाथाएं कहलाती हैं। द्वादशाङ्ग का संक्षिप्त सारांश १११-इच्चेइयम्मि दुवालसंगे गणिपिडगे अणंता भावा, अणंता अभावा, अणंता हेऊ, अणंता अहेऊ, अणंता कारणा, अणंता अकारणा, अणंता जीवा, अणंता अजीवा, अणंता भवसिद्धिया, अणंता अभवसिद्धिया, अणंता सिद्धा, अणंता असिद्धा पण्णत्ता। भावमभावा हेऊमहेऊ कारणमकारणे चेव । जीवाजीवा भविअ-अभविआ सिद्धा असिद्धा य ॥ १११—इस द्वादशाङ्ग गणिपिटक में अनन्त जीवादि भाव, अनन्त अभाव, अनन्त हेतु, अनन्त अहेतु, अनन्त कारण, अनन्त अकारण, अनन्त जीव, अनन्त अजीव, अनन्त भवसिद्धिक, अनन्त अभवसिद्धिक, अनन्त सिद्ध और अनन्त असिद्ध कथन किए गए हैं। भाव और अभाव, हेतु और अहेतु, कारण-अकारण, जीव-अजीव, भव्य-अभव्य, सिद्धअसिद्ध, इस प्रकार संग्रहणी गाथा में उक्त विषयों का संक्षेप में वर्णन किया गया है।
SR No.003467
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_nandisutra
File Size17 MB
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