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________________ श्रुतज्ञान] [१७९ धर्म में तथा मोक्ष प्राप्ति के उपायों में शंका न रखना। (२) निःकांक्षित सच्चे देव, गुरु, धर्म और शास्त्र के अतिरिक्त कुदेव, कुगुरु, धर्माभास और शास्त्राभास की आकांक्षा न करना, सच्चे जौहरी के समान जो असली रत्नों को छोड़कर नकली रत्नों को पाने की इच्छा नहीं करता। (३) निर्विचिकित्सा आचरण किये हुए धर्म का फल मिलेगा या नहीं ? इस प्रकार धर्मफल के प्रति सन्देह न करना। (४) अमूढ़दृष्टि विभिन्न दर्शनों की युक्तियों से, मिथ्यादृष्टियों की ऋद्धि से, उनके आडम्बर, चमत्कार, विद्वत्ता, भय अथवा प्रलोभन से दिग्मूढ न बनना तथा स्त्री, पुत्र, धन आदि में गृद्ध होकर मूढ न बनना। (५) उवबृहं—जो व्यक्ति, संघसेवी, साहित्यसेवी तथा तप-संयम की आराधना करने वाले हैं, और जिनकी प्रवृत्ति धर्म-क्रिया में बढ़ रही है, उनके उत्साह को बढ़ाना। (६) स्थिरीकरण सम्यग्दर्शन या चारित्र से गिरते हुए स्वधर्मी व्यक्तियों को धर्म में स्थिर करना। (७) वात्सल्य—जैसे गाय अपने बछड़े पर प्रीति रखती है, उसी प्रकार सहधर्मी जनों पर वात्सल्य भाव रखना, उन्हें देखकर प्रमुदित होना तथा उनका सम्मान करना। (८) प्रभावना जिन क्रियाओं से धर्म की हीनता और निंदा हो उन्हें न करते हुए जिनसे शासन की उन्नति हो तथा जनता धर्म से प्रभावित हो, वैसी क्रियाएँ करना, प्रभावना दर्शनाचार कहलाता है। (३) चारित्राचार—अणुव्रत-देशचारित्र तथा महाव्रत-सकल चारित्र हैं। इन दोनों का पालन करने से संचित कर्मों का क्षय होता है तथा आत्मा ऊर्ध्वगामिनी होती है। चारित्राचार के दो भाग हैं—(१) प्रवृत्ति और (२) निवृत्ति। मोक्षार्थी को प्रशस्त प्रवृत्ति करना चाहिए, इसे समिति कहा जाता है। समिति पांच प्रकार की होती है। (१) ईर्यासमिति–छह कायों के जीवों की रक्षा करते हुए यत्नपूर्वक चलना। (२) भाषासमिति—हित, मित, प्रिय, सत्य एवं मर्यादा की रक्षा करते हुए यतना से बोलना। (३) एषणासमिति अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का ध्यान रखते हुए आजीविका करना अथवा निर्दोष भिक्षा ग्रहण करना। (४) आदान-भण्डमात्र निक्षेपणसमिति—भण्डोपकरण को अहिंसा एवं अपरिग्रह व्रत की रक्षा करते हुए यत्नपूर्वक उठाना और रखना। (५) उच्चार-प्रस्त्रवण-श्लेष्म-जल्ल-मल-परिष्ठापनिकासमिति—मल-मूत्र, श्लेष्म, कफ, थूक आदि को यतनापूर्वक निरवद्य स्थान पर परिष्ठापन करना तथा तीखे, विषैले एवं जीवों का संहार
SR No.003467
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_nandisutra
File Size17 MB
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