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श्रुतज्ञान ]
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द्रव्य तो इक्कीस लाख योजन की दूरी से भी देखा जा सकता है । जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र सभी इन्द्रियाँ अपने-अपने विषय को ग्रहण कर सकती हैं।
मतिज्ञान के पर्यायवाची शब्द निम्नलिखित हैं
(१) ईहा सदर्थ का पर्यालोचन ।
(२) अपोह— निश्चय करना ।
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(३) विमर्श - ईहा और अवाय के मध्य में होने वाली विचारधारा ।
(४) मार्गणा - अन्वय धर्मों का अन्वेषण करना ।
(५) गवेषणा — व्यतिरेक धर्मों से व्यावृत्ति करना ।
(६) संज्ञा — अतीत में अनुभव की हुई और वर्त्तमान में अनुभव की जानेवाली वस्तु की एकता का अनुसंधान ज्ञान ।
(७) स्मृति अतीत में अनुभव की हुई वस्तु का स्मरण करना ।
(८) मति—जो ज्ञान वर्तमान विषय का ग्राहक हो ।
(९) प्रज्ञा – विशिष्ट क्षयोपशम से उत्पन्न यथावस्थित वस्तुगत धर्म का पर्यालोचन करना । (१०) बुद्धि अवाय का अंतिम परिणाम ।
ये सब आभिनिबोधिक ज्ञान में समाविष्ट हो जाते हैं। जातिस्मरण ज्ञान के द्वारा भी, जो कि मतिज्ञान की ही एक पर्याय है, उत्कृष्ट नौ सौ संज्ञी के रूप में हुए अपने भव जाने जा सकते हैं । जब मतिज्ञान की पूर्णता हो जाती है, तब वह नियमेन अप्रतिपाती हो जाता है। उसके होने पर केवलज्ञान होना निश्चित है । किन्तु जघन्य - मध्यम मतिज्ञानी को केवलज्ञान हो सकता है और / नहीं भी हो सकता है ।
इस प्रकार मतिज्ञान का विषय सम्पूर्ण हुआ ।
श्रुतज्ञान
७२ – से किं तं सुयनाणपरोक्खं ?
सुयनाणपरोक्खं चोद्दसविहं पन्नत्तं तं जहा - (१) अक्खरसुयं (२) अणक्खर - सुयं (३) सण्णि-सुयं (४) असण्णि-सुयं (५) सम्मसुयं (६) मिच्छसुयं (७) साइयं ( ८ ) अणाइयं ( ९ ) सपज्जवसियं (१०) अपज्जवसियं ( ११ ) गमियं ( १२ ) अगमियं (१३) अंगपविट्ठे (१४) अनंगपविट्ठे ।
७२ – प्रश्न श्रुतज्ञान-परोक्ष कितने प्रकार का है?
उत्तर— श्रुतज्ञान- परोक्ष चौदह प्रकार का है । जैसे ( १ ) अक्षरश्रुत (२) अनक्षरश्रुत (३) संज्ञिश्रुत (४) असंज्ञिश्रुत (५) सम्यक् श्रुत (६) मिथ्याश्रुत (७) सादिकश्रुत (८) अनादिकश्रुत (९)