________________
है। इसका मैंने अपने अनुवाद में भरपूर उपयोग किया है। कहीं-कहीं विवेचन में कतिपय नवीन विषयों का भी समावेश किया है। तथापि यह स्वीकार करने में मुझे संकोच नहीं कि आचार्यश्री के अनुवाद को देखे बिना प्रस्तुत संस्करण को तैयार करने का कार्य मेरे लिए अत्यन्त कठिन होता।
साथ ही अपनी सुविनीत शिष्याओं तथा श्री कमला जैन "जीजी" एम.ए. का सहयोग भी इस कार्य में सहायक हुआ है। पंडितप्रवर श्री विजयमुनिजी म. शास्त्री ने विद्वत्तापूर्ण प्रस्तावना लिख कर प्रस्तुत संस्करण की उपादेयता में वृद्धि की है। इन सभी के योगदान के लिए मैं आभारी हूँ। अन्त में एक बात और
गच्छतः स्खलनं क्वापि भवत्येव प्रमादतः। चलते-चलते असावधानी के कारण कहीं न कहीं चूक हो ही जाती है। इस नीति के अनुसार स्खलना | की सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता। इसके लिए मैं क्षमाभ्यर्थी हूँ। सुज्ञ एवं सहृदय पाठक यथोचित सुधार कर पढ़ेंगे, ऐसी आशा है।
जैनसाध्वी उमरावकुंवर 'अर्चना'
(१६)